Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
438.
षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा-का.प्रथम श्रतसन्ध-48500
जाव हियया करयल परिग्गहियंसि जावं अंजलि कट्ट एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवि तहमेयं-असंदिद्वमेयं-इच्छियं पडिच्छियमेयं सच्चेणं एसमढे जे तुम्भे वयहत्ति कटु, तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ २ त्ता सेणिएणं रण्णा अभण्णुणायासमाणी जाणामणि कणगरयण भत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अग्भटेड २ त्ता, जेणेव सयं सयणिजे तेणेव उवागच्छड २ सा सयंसि सयणिजसि निसीइय २ त्ता, एवं वयासी-मामेते उत्तमे पहाणे मंगले सुभिणे
अणेहिं पावसुमाणेहिं पडिहिमिहितिकटु, देवयगुरुजणसंबंधाहिं पसथाहिं धम्मिप्रशंसा की ॥ २० ॥ जब उस धारणी राणी को श्रेणिक राजाने ऐसा कहा तब वह भी हृष्ट तुष्ट पावत् .
नंदित हृदयवादी हुई और हस्त तल भीलाकर यावत् अंजली करके ऐसा बोली. अहो देवानप्रिय ! जो तुम कहते हैं वह ऐमा ही हैं. यह ऐमा ही है, वह तथ्य हैं, यह अवितथ्य है, शंका रहित है, मैंने यही अर्थ इच्छा है. और यही अर्य सत्य हैं. ऐसा कहके सप्प के फठ को अच्छी तरह इच्छा, फीर श्रेणिक राजा की आशा से विविध प्रकार के मणि कनक व रत्नोंवाला भद्रासन से उठकर जहां अपना शका स्थान था वहां आई. यहां आकर शयन में बैठकर पुनः ऐसा विचार किया कदाचित् मेरा यइ उत्तम सप अन्य पापस्न से पास पवि. इसलिये देवगुरु जन संधि प्रशस्त धार्मिक कथा से स्वप्न जागरणा
as
उक्षित (मयकुमार) का प्रथम अध्ययन 4.88
*
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org