Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे खलु गौतम ! मया पुरुषः साराधकः प्रज्ञप्तः३, तत्र खलु यः स चतुर्थः पुरुषजातः, स खलु पुरुषः अशीलवान , अश्रुतवान् , अनुपरतः, अविज्ञातधर्मा, एष खलु गौतम ! मया पुरुषः सर्वविराधकः प्रज्ञप्तः४ ॥ मू०१॥
टीका-'रायगिहे नयरे जाव एवं वयासी'-राजगृहे नगरे यावत् स्वामी समवस्तः, समवसृतं भगवन्तं वन्दितुं नमस्कर्तुं पर्षत् निर्गच्छति, वन्दित्वा नमगौतम ! ऐसे पुरुष को मैंने देशविराधक कहा है। (तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए, से णं पुरिसे सीलवं सुयवं, उवरए विनायधम्मे-एस णं गोयमा! मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते) जो तृतीय पुरुष है जो शील वाला भी होता है और श्रुतवाला भी होता है। ऐसा वह पुरुष प्राणातिपातादिक से निवृत्त होता है और धर्म का ज्ञाता होता है। उस पुरुष को मैंने सर्वाराधक कहा है। (तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए-से णं पुरिसे असीलवं असुयवं-अणुवरए, अविण्णायधम्मे-एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सविराहए पण्णत्ते ) तथा इन चार पुरुषों के बीच में जो चौथापुरुष है, वह शीलविना का और श्रुतविना का होता है। ऐसा यह पुरुष पापादिक से निवृत्त भी नहीं होता है और न धर्म का ज्ञाता ही होता है। ऐसे पुरुष को हे गौतम ! मैंने सर्वविराधक कहा है।
टीकार्थ-नौवे उद्देशक में बन्धादिक पदार्थों का निरूपण किया गया है-इन बन्धादिकों का विचार श्रुत शील संपन्न मनुष्य ही करते हैं। છે, પણ ધર્મને જ્ઞાતા હોય છે. હે ગૌતમ! એવા પુરુષને મેં દેશવિરાધક
यो छे. ( तत्थणं जे से तचे पुरिसजाए, से गं पुरिसे सीलव सुयव, उवरए विनायधम्मे-एम ण गोयमा ! मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते ) त्रील प्रश्न જે પુરુષ છે, તે શીલવાન પણ હોય છે અને શ્રતવાન પણ હોય છે. એ તે પુરુષ પ્રાણાતિપાત આદિથી નિવૃત્ત હોય છે અને ધર્મને જ્ઞાતા હોય છે.
गीतम ! सेवा पुरुषने में साराध हो छ. ( तत्थणं जे से चउत्थे पुरिस जाए-से णं पुरिसे असीलव असुयव-अणुवरए, अविण्णायधम्मे-एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते ) याथा प्रा२ने। २ पुरुष छ त શીલ વિનાને અને કૃત વિનાને છે. એવે તે પુરુષ પાપાદિકથી નિવૃત્ત પણ હોતું નથી અને ધર્મને જ્ઞાતા પણ તે નથી. હે ગૌતમ ! એવા પુરુષને મેં સર્વવિરાધક કહ્યો છે. 1 ટીકાર્ય–નવમાં ઉદ્દેશકમાં બંધાદિક પદાર્થોનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. આ બન્ધાદિકને વિચાર કૃત શીલ સંપન્ન મનુષ્ય જ કરે છે. તેથી એજ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭