Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 692
________________ ६८० भगवतीसूत्रे तदावरणीयानां विभङ्गज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन 'ईहापोहमग्गणगवेसणं करेस्समाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ ' ईहापोहमार्गणगवेषणम् तत्र ईहो सदाभिमुखा ज्ञानचेष्टा, अपोहस्तु विपक्षनिरासः, मार्गणं च अन्वयधर्मालोचनं, गवेषणं तु व्यतिरेकधर्मालोचनम् , कुर्वतः विभङ्गो नाम अज्ञानं समुत्पधते । ‘से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं ' स खलु बालतपस्वी तेन पूर्वोक्तेन समुत्पन्नेन विभङ्गज्ञानेन करणभूतेन 'जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उको सेणं असं खेज्जाई जोयणसहस्साई जाणइ पासइ' जघन्येन अङ्गुलस्य असं ख्येयभागम् , उत्कर्षेण तु असंख्येयानि योजनसहस्राणि जानाति पश्यति । ' से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवेवि जागइ, अजीवेवि जाणइ ' स खलु तेन युक्त बना हुआ है (तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं) विभंगज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से (अन्नयाकयाई) कदाचित् ( ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स ) ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते समय (विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ) विभंग नाम का अज्ञान उत्पन्न हो जाता है । सदर्थ की तरफ झुकती हुई जो ज्ञान की चेष्टा है उसका नाम ईहा, विपक्ष के धर्मों का निरास करने का नाम अपोह, अन्वयरूप से वर्तमान धर्म की आलोचना करने का नाम मार्गण एवं व्यतिरेक धर्मों की आलोचना करना इसका नाम गवेषण है । ( से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं) उत्पन्न उस विभज्ञान से वह बालतपस्वी ( जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं असंखेजाइं जोयणसहस्साइं जाणइ पासइ) कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को और अधिक से अधिक असंख्यात हजार योजनप्रमाण क्षेत्र को जानता है और देखता है। (से णं ते ण विभंगनाणेणं कम्माण खओवसमेण') से मालत५२वी अपने विज्ञानावरणीय भाना क्षयोपशम यवाथी (अन्नया कयाई ) या२४ (ईहापोह मग्गणगवेसण करे माणस्स) घडी, सपा, भागयो भने गवेषा ४२ता ४२ता (विभंगेनामं अन्नाणे समुप्पज्जइ) विनामनुं सज्ञान उत्पन्न 201य छ, सहथनी त२३ બકતી જે જ્ઞાનની ચેષ્ટા છે તેને “હા” કહે છે. વિપક્ષના ધર્મોને નિરાસ ( હી દ્વારા તેમની માન્યતાઓને ખોટી સાબિત કરવી તેનું નામ અપેહ છે.) કરો તેનું નામ “અહ” છે. અન્વયરૂપે વર્તમાન ધર્મની આલોચના કરવી તેનું નામ માગણ છે અને વ્યતિરેક (વિરેધી) ધર્મોની આલેચના કરવી તેનું નામ ગષણ છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭

Loading...

Page Navigation
1 ... 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776