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३८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ३.-उद्देशक १. परिवार.
परिवार आ प्रमाणे छे:-एंशी हजार सामानिक देवो, चार लोकपालो, परिवारवाळी आठ पट्टराणीओ, सात सेनाओ, सात सेनाधिपतिओ, ३,
३२००० अंगरक्षक देवो अने बीजा अनेक वैमानिक देवो तथा देवीओ. हवे ते ईशानेंद्रे जंबूद्वीपने अवधिज्ञानवडे जोयो अने तेने जोतां राजमहाबीर. गृह नगरमा पधारेल भगवंत महावीरने पण जोया. भगवंतने जोइने ते इंद्र एकाएक आसनधी उभो थयो अने आसनथी उठी सात आठ पगलां
तीर्थकरनी सामे गयो. पछी कपाळमां पद्मना कोशनी पेठे हाथ जोडी तेणे श्रमण भगवंतने वांद्या. अने त्यार बाद पोताना आभियोगिक देवोने तेणे
राजप्रश्नीय सूत्र उपांगरूप होवाथी तेना कर्ता कोई स्थविर ( साधु ) होय तेम उपरना वधा उल्लेखो स्पष्टपणे सूचित करे छे. एथी आपणे पण ते ज खोना संवादने प्रामाणिक मानवानो छे. राजप्रश्नीय सूत्र, बीजा अंग-सूत्रकृतांग-र्नु उपांग छे, तेथी ए बे वचे रहेलो अंगोपांगीभाव तपासवो जरूरनो छे. सूत्रकृतांगमा जे जे विषयो आवेला छे ते विषे आगळ (प्र०ख०पृ०९-१०) अपेलुं निरूपण जोई लेवार्नु छे. जे सूत्रकृतांग वर्तमानमा मळे छे तेमा कुल २३ अध्ययनो छे. तेनां नाम अने तेमां आवेला विषयो आ प्रमाणे छे:
१ ला समय नामना अध्ययनमां वीतरागना मंतव्यनु स्वरूर छे. २ जा वैतालीय अध्ययनमां-वैराग्यनो सर्व साधारण उपदेश छे अने ते वैतालीय छंदमां गवाएलो छे. नियुक्तिकारे ए उपदेशने “आदीश्वरे आपेलो उपदेश" कहेलो छे. ३ जा उपसर्गपरिज्ञा अध्ययनमा अने ४ था स्त्रीपरिज्ञा अध्ययनमा संयमनी साधनामां आडे आवती अनुकूळता अने प्रतिकूळतानुं खरूा दाव्युं छे. ५ मा निरयविभक्तिमां नरकोना विभागो बताव्या छ. ६ वीरस्तुतिमां स्तुतिद्वारा श्रीवीरनी चर्या नोंधेली छे. ७ मा कुशीलपरिभाषामा कुशीलोनी स्थितेि-दशा-जणावी छे. ८ मा वीर्य, ९ मा धर्म, १० मां समाधि, ११ मा मार्ग, १२ मा समवसरण ( दार्शनिकोनी सभा,) १३ मा याथातथ्य, १४ मा ग्रंथ १५ मा आदान अने १६ मा गाथा अध्ययनमा संयमने लगता साधारण विषयो निरूपेला छे अने मात्र एक बारमा अध्ययनमा मतवादिओना विनयवादादिनी चर्चा करी छे. १७ मा अध्ययनमा पण उपनयनी पद्धतिए बारमा अध्ययन जेवी चर्चा करेली छे. १८ मा क्रियास्थान, १९ मा आहारपरिज्ञा, २० मा प्रत्याख्यान अने २१ मा अनाचारश्रुतमां अनुक्रमे कायिकी विगेरे क्रियाओगें, आहारर्नु, प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) नुं अने अनाचारनुं वर्णन आपेलुं छे. २२ मा आईकीय अध्ययनमा हस्तितापस, गोशालक अने बुद्ध विगेरेने आर्द्र कुमारनी साथे शास्त्रार्थमा जोडीने उपहासपूर्वक पाछा पाड्या छे. अने छेल्या २३ मा नालंदीय अध्ययनमा गैातम अने पावापत्य उदक वचे नालंदामां थएली चर्चाने नोंधेली छे. आ प्रकारे वर्तमान सूत्रकृतांग सूत्रमा मळता विषयोमा राजा प्रदेशी के तेने लगती हकीकतनुं नीशान सुद्धा जणातुं नथी अने आ सूत्रना उपांगभूत कहेवाता 'राजप्रश्नीय' सूत्रमा तो राजा प्रदेशीनो सूर्याभ देव तरीकेनो अवतार, तेनी देवऋद्धि, देवद्युति अने दिव्य भोगविलासो तथा तेणे करेलुं दिव्यनाटक विगेरे वर्णवाएला छे अने निथश्रमण साथे थएला राजा प्रदेशीना जीवविषयक प्रश्नो तथा गैातम अने पार्थापत्य केशीनो आलाप संलाप पण सूचवाएलो छे. आ रीते ए बन्ने सूत्रोनो विषय जोतां सूत्रकृतांग अने राजप्रश्नीय वच्चे जणावेलो अंगोपांगीभाव घटी शकतो होय एम मने लागतुं नथी. कदाच एम कहेवामां आवे के, सूत्रकृतांग अने राजप्रश्नीयमां आवती जीवविषयक चर्चा एक सरखी जणाय छे, एने लीधे ए बन्ने बच्चे रहेलो अंगोपांगीभाव शा माटे न घटी शके ! भाना समाधानमा जणाववायूँ के, एनी (राजप्रश्नीयनी) ए चर्चा जेटली सूत्रकृतांगगत चर्चा साथे मळती आवे छे तेटली ज आचारांगादिगत चची साथे मळती आवे छे, एथी ए चर्चा ते ये वचेना अंगोपांगीभावनी नियामक होई शके नहि-शकती नथी. छेवट आ तपासना परिणामे लभ्यमान सूत्रकृतांग अने लभ्यमान राजप्रश्नीयना संबंध माटे जणावातो "सूत्रकृतानस्य राजप्रश्नीयम्"ए जातनो उल्लेख विघटता जणाय छे. आ जातनो कांई आ एक ज उझेख नथी. परंतु एवा बीजा अनेक उल्लेखोने हुं तो प्रत्यक्ष करी रह्यो छउं. जेमके; “ उपासकदशाङ्गस्य चंद्रप्रज्ञप्तिः ॥ "ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः" " दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा" -उपासकदशांग सत्रमा वर्धमानना दश श्रमगोपासकोनो वृत्तांत आवे छ अने चंद्रपन्नत्ति सूत्रमा चंद्रने लगतुं सविस्तर ज्योतिष आवे छे. ज्ञाताधर्म कथा सूत्रमा केवळ कथाओ आवे छे अने जंबूद्वीपपन्नत्तिमा जंबूद्वीपने लगती ए जातनी हकीकत आवे छे, जे प्रायः वाचकोने माटे तद्दन परोक्ष जेवी छे, दृष्टिवादमां दर्शनशास्त्रनी चर्चा आवे छे अने वृष्णिदशामां अंधकवृष्णिवंशनी कथाओ भरेली छे-ए रीते १ ला, २ जा अने वीजा उल्लेखमा जणावेला ते ते उपासक. दशा, ज्ञाताधर्मकथा अने दृष्टिवाद-सूत्रोनो अनुक्रमपूर्वक चंद्रप्रज्ञप्ति, जंबूदीपप्रज्ञप्ति अने वृष्णिदशा साथे जणाला अंगोपांगीभाव पण शी रीते घटी शके ? ए राजप्रश्नीयमाथी जे हकीकतने अही जाणवानी छे, तेने स्वयं टीकाकारे संक्षेपपूर्वक टीकामां जगावेली होवाथी अहीं तेनो मूळ पाठ आपवो अनावश्यक जणाय छे. ए हकीकतनो मूळ पाठ अर्थात् सूर्याभदेवनो अधिकार राजप्रश्नीय सूत्रमा (क.आ.पृ०१८ थी २०५) सुधी छे.
प्रस्तुत टिप्पण लखाइ रह्या पछी जैनधर्मना एक पेटा संप्रदायना (मूर्तिने नहि माननारा संप्रदायना) अंग अने उपांगना क्रम विषे जे विचारो जणाया छ तेने पण अहीं दर्शाववानी जरूर जणाय छे. जे स्थळे जंबूद्दीपप्रज्ञप्तिमा (पृ.१) अंग अने उपांगना कमनो उल्लेख कर्यों छे त्यां ज एम जणाव्यु छे के:- अत्र च उपाङ्गक्रमे सामाचार्यादौ कश्चिद् भेदोऽप्यस्ति " अधीत् अहीं जणावेला उपांगना क्रमथी कोइ संप्रदाय जुदो पण पडे छे एटले बीजो कोई जैन संप्रदाय उपांगनो क्रम जुद्दी रीते पण जणावे छे. एम धारी शकाय छे के, आ उल्लेख, ए मूर्तिने नहि माननार जैन-संप्रदायने उद्देशीने पण करायो होय. कारण के, ते दो नीचे प्रमाणे उपांगनो क्रम जणावे छे (जे अहीं जणावेला क्रमथी जुदो पडे छे.):अंग.
उपांग, ५. भगवती
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति. ६. ज्ञाता
चंद्रप्रज्ञप्ति अने सूर्यप्रज्ञप्ति. ७. उपासकदशा
निरयावलिका. अंतकृद्दशा
कल्पवतंसिका. ९. अनुत्तरौपपातिक
पुष्पिका.. १०. प्रश्नव्याकरण
पुष्पचूलिका. ११. विपाकश्रुत
वृष्णिदशा. आ लोको दृष्टिवाद के तेना उपांगनो निर्देश करता नथी. ए सिवायनो बीजो क्रम तो पूर्व प्रमाणे छे. आवी नहि जेवी वावतमा जे आ जातनो संप्रदाय-भेद छ ते पण उपांगना सुनिश्चित क्रमनुं शैथिल्य जणावे छे.:-अनु०
१. आ विषयनी सविस्तर हकीकत प्रज्ञापना सूचना स्थान पदमां अने जीवाजीवाभिगम सूत्रना देववर्णनाधिकारमा आवेली छे :-अनु.
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