Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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قایم
शतक ६.-उद्देशक ३.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. इदमुक्तं भवतिः-बद्धमति ज्ञानावरणं कर्म त्रीणि वसहस्र.णि यावदोद्यमानम् आस्ते, तातभूगोऽनुभव हालस्तस्य, स च. वर्षसहस्रनयन्यूनस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीपान इति. अन्ये त्याहु:- 'अबाधाकालो वर्षसहस्र त्रयमानः, बाधाकारश्च सागरोपमके टी
करे है. आ प्रकारनो दलिक-निषेचननो प्रसंग मात्र आयुष्य कर्म सिवाय. वीजा व कीना-सात कमी संबंधे ज समजवानो छे. आयुष्य माटे पण ए प्रसंग नथी एम नथी, पण तेमां तो ज्यारथी आयुष्य बंधाय सारथी ज ए प्रिया शरू थइ जाय छे. एटले कर्मनिपेक माटे एमां अबाधाकाळने पूरो धवानी जरूर रहेती नथी अर्थात् जो के, आयुध्यनो अवाधाकाळ
तो होय छ, परंतु ए प्रसंगे अबाधाकाळने वर्जयागी जरुर रहेती नथी. वात ए छे के, आयुष्प-बंधना पहेले क्षणे ज एनां वेद्य दळियांओर्नु निपचन शरु थइ जाय छे-प्रथम समयमा जे आयुष्यनां घगां दळियां ओनो निपेक थइ जाय छे अने स्यार पछीथी ते ठे। छल्ला समय सुबी आयुष्यना दळियांओ विशेषहीन विशेषहीन निषेचायां करे छ-पंचसंग्रहमा पण आ
हकीकतने जणावेली समजवानी छ,” -र्मप्र० पृ० ८० (भा०) आ'दळियानां विवरन'नी हकीकत जरा विशेष स्पष्ट थाय एवा हेतुथी जए. विषे जे काह हकीकत पंचसंग्रहमा जणावेली छे-तेने पण अहीं संक्षेपमा जणाववामां आवे छे:"मोहे सयरी कोडाकोडीओ वीस नाम-गोयाण,
" मोहनी ७० कोडाकोडी सागरोग्म, नान-गोत्रनी २० कोडाकोडो तीसि-घराण चउण्हं तेत्तीसयराई आउस्स"-३१ सागरोपम, बीजां चारनी ३० कोडामोडी सागरोपम अने आयुष्य नी तेत्रीश
सागरोपम." "मोहे मोहनीये-मोहनीयस्य कर्मग उत्कृष्टा स्थितिः सप्ततिसागरोपम- “कर्मनी स्थितिना बे प्रकार छः एक तो कर्मरूले रहे ओ बीजी कोटीकोट्यः. इह द्विधा स्थितिः, तद्यथा-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा, अनुभव- अनुभव योग्य कर्मरूपे रहे. जे अहीं वध रेनां बधारे के अंछन ओडी योग्या च. तत्र कर्मरूपतावस्थानलक्षणाम्-एव स्थितिम् --अधिक य कर्म-स्थितिनी हद जगावेली छ ते-कर्मरूपे रहेवानी स्थितिने अंगे उत्कृष्टम् , जधन्यं वा प्रमाणम्-अभिधातुम्-इष्टम्-अवगन्तव्यम्. समजवी. अने र कम ज्यारथी अनुभवामां आवे स्यारनी स्थिति ने अनुअनुभवयोग्या पुन: अब धाकालहीना. येषां च कर्म गा याप यः सागरोपग- भव योग्य कर्मरूपे रहेगारी स्थिति जागवी अचान कर्मनी कूल स्थितिमाथी कोटीकोट्यः-बां तावन्ति वर्षशतानि अबाधाकालः. तथा च वक्ष्यति- तेना अनुदपनो वखत-बाधाकाल-बाद करतां जे स्थिति शेष रहे - एवइयाऽवाह वाससया'-३६. तेन मोनी यस्य उत्कृष्ट स्थितिः तेने अनुभवयोग्य कर्मरूपे रहेनारी स्थिति समजबी. जे कर्मनी स्थिति सप्ततिसागरोचमकोटीकट्य -इति तस्य सप्ततिवर्षशतानि अबाधाकालः. जेटलां कोडाकोडी सागरोपमनी होय तेटलां सो वर्ष ते, अनुभवमा तथाहि-तद् मोहनीयम्-उस्कृष्टस्थितिक बढ़ सा सप्त वर्षशतानि यावद् अव्या सिवाय आत्मा पासे एक अकिविकर जेवू थइने पब्यं रहे है. न कदाचिदपि स्वोदयतो जीवस्य ब.धामुत्पादयति-अबाधाकालहीनश्च उदाहरण तरीके जेम, मोहनीय कर्मनी ७० कोडाकोडी सागरोपमनी उकृष्ट कर्म:लिकनिषेतः किमुक्तं भवति ?-सप्ततिवर्षशतप्रमाणेषु समयेषु मध्ये स्थिति छे-तो ते १० सो वर्ष सुधी अर्थात् ७००० वर्ष सुधरे तो मात्र न वेद्यदलि कनिक्षेपं करोते, किंतु तत ऊर्ध्वम् इति. तथा नाम-गोत्रयो.- पच्चं ज रहे छ एटले के कोइ मोदी आरमाए, नगा मोहनीय कर्मनो मोटानां उकृष्टा स्थितिः-विंशतिः सागरोमकोटीकोन्यः, द्वे वर्ष पहले अबाधा, मोटी हदवाळो बंध को होय अने तेवो प्रखर बंध का पछो तुरत ज अबाधाकालहीनश्च कर्म दलिकनिषेकः, तथा इतरेषां चतुर्णीम्-ज्ञानावरण- काइ ते बंध, ए आत्माने लाभ हानि करी शकतो नथी. पण बंध काना दर्शनावरण वेदनीय-अन्तरायाणां त्रिंशत् सागरोसमकोटीको म्यः उत्कृष्टा क्षणथी ते ७००० वर्ष सुधी तो ए बंधने लगता अणुओ एक सूतेला अजस्थितिः, त्रीणि वर्षसहस्राणि अगधा-अबाधाकालहीनश्च वर्मदलिकनिषेकः. गरनी जेम मात्र पढ्यां ज रहे छ अने एटलो वखत पसार थथा पछी आयुष उत्कृष्टा स्थितिः--याविशदतराणि-सागरोग्माणि पूर्वकोटि- तुरत ज ते ७००० वर्ष पहेलां करेलो मे ह-बंब, ए बंध करनार मोही त्रिभागाभ्यधिकानि--पूर्व कोटि नभाग :- अवाधा-अबाधा कालहीनश्च आत्नाने पोतानुं विष चडाववा मांडे छे. तात्पर्य ए छे के, ७००० वर्ष कर्मदलि कनिपेकः"
वी या पछी ए बांधेला मोहने लगतां अणुओमांधी, समये समये अनुक " मोत्तुमकसाइ तणु या टिई वेयणि यस्स बारस मुत्ता, प्रमाणवाळा अणुओ पोतानुं फळ आपता जाय छे-पण सार पहेला- ०००
अटू नाम-गोवाण, सेसयाण मुहुर्ततो." ३२ वर्ष पहेला--ए अणुओमा एक पण अणु पोतार्नु फळ अनुभव वी शकतो " इह द्विधा वेदनीयस्य जघन्या स्थितिः प्राप्यते, तद्यथा-सकषायाणाम् , नयी-अर्थात् ए पडेलां मोहना अणुओ अत्माने कशुं पोतानुं व देखा। अकपाया च. तत्र अकपायिनो मुत्वा शेषाणां कपायिणां वेदनीय य शकत नथी. जेटला बखत ती ए अणुओ अत्माने पोनानं विर चसायी तन्वी-जघन्या स्थितेः- द्वादश मुहूना:, अन्तर्मुहूर्नम् अवाधा-अबाधाका- शकता नथी ते वखतने शास्त्र कारोए 'अबाधाकाळ 'ना नामधी जणावेलो लहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः. नाग-गोत्रयोः प्रत्यकं अौ मुहूती जघन्या है-जे काळमां आत्माने वाधा न थती हो । ते अवाधाकाळ-ए नाम स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तम् अबाधा-अबाधाकालहीनच वर्मदलि कनिषेकः.
पण वरावर छे. ज्यां सुधी वर्मो ए अवाधःकाळ होय यां सुकी एक पण
या यो सभी वर्मा तथा शेषाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय-मोहनीन-आयुषा अग (दलिक) अनुभवातो नथी. ए उदययोग्य अणुओनी रचनाने जघन्या स्थितिः-गुहूतीन्तः-अन्तर्मुहूर्तम्- अत्रापि अन्तर्गहूर्तम्-अबाधा- शन कारोए धर्म दलि। निषेक अथवा कर्म.नेपेक कमानिसेओ' शब्दयी नवरम् -तद् लघुतरमासे यम् - अवाधावालहीनश्च कर्मदलि निकः"
संबोधेली छे-जे जे कर्मगो जेटलो अय धःकाळ होय ते बाद करता बाकी रहेता कर्म-स्थितिना तद्दन छेक्ट सुधना समयने ' कर्मनिषेक' शब्दयी ओळखबानो छे. सागेना उखमा दरेक कर्मनों वधारेमा वधारे अने ओछामा औठो अवाधाकाळ तथा कर्मनिषेककाळ-वाधाकाळ-जणावलो छे. ते आ प्रमाणे छे:
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