Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहेबाहिराओ कण्हराइओ छलसाओ, दो उत्तर-दाहिणवाहि- उत्तरबाह्य कृष्जराजिने स्पर्शेली छे अने उत्तराभ्यंतर कृष्णराजि पूर्वबाट राओ कण्हराईओ तंसाओ, दो पुरस्थिम -पञ्चत्थिमाओ कृष्णराजिने स्पर्शली छे, पूर्वनी अने पश्चिमनी बे बाह्य कृष्णराअम्भिंतराओ कण्हराइओ चरंसाओ, दो उत्तर-दाहिणाओ जिओ षडंशा छ खुणी-छे, उत्तरनी अने दक्षिणनी बे बाघ कृष्णअभिंतराओ कण्हराइओ चउरंसाओ.
राजिओ त्रांसी-त्रिखणी-छे, पूर्वनी अने पश्चिमनी बे अभ्यंतर -पुव्वाऽवरा छलंसा तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा,
कृष्णराजिओ चटरंस-चो.स-चोखंडी छे अने उत्तरनी अने दक्षिणनी अभिंतर चउरम सव्वा वि य कण्हरातीओ.
बे अभ्यंतर कृष्णराजिओ पण चउरंस-चोखंडी-छ. -(कृष्णराजिओना आकारोने लगती गाथा कहे छे:-) पूर्वनी अने पश्चिमनी कृष्णराजि छ खूणी छे, वळी, दक्षिगनी अने उत्तरनी बाह्य कृष्णराजि त्रिखूणी छे, अने बीजी बधी पण अभ्यंतर
कृष्णराजि चोरस छे. २२. प्र०-कण्हराईओणं भंते ! केवतियं आयामणं, केवड़यं २२. प्र.--हे भगवन् ! वृ.प्राजि, आयामबडे केटली कही विवखंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ता ?
विभवडे केटली कही छे अने परिक्षेपवडे केटली कही छे ! २२. उ०-गोयमा! असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामेणं, २२. उ.--हे गौतम ! कृष्णराजिओनो आयाम, असंख्येय संखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साई योजन सहस्र छ, विष्कम, संख्येय योजन सहस्र छे अने परिक्षेप परिक्खेवेणं पन्नचाओ.
तो असंख्येय योजन सहस्र छे. २३. प्रकण्हराईओ णं भंते! केमहालियाओ पत्नत्ताओ! २३. प्र०-हे भगवन् ! कृष्णराजिओ केटली मोटी कही ? २३. उ०-गोयमा! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे, जाव- अद्धमासं २३. उ०-हे गौतम ! एक विपळ जेटला वखतमा पण कोई वीईवएना, अत्थेगइयं कण्हराई वीईवइज्जा, अत्थेगइयं कण्हराई देव जंबूद्वीपने एकवीश वार फरी आवे अने एवीज शीघ्रतम णो वीईवएज्जा; एमहालियाओणं गोयमा ! कण्हराईओपन्नत्ताओ. गतिवडे जो लागलागट अडघो मास चालवानां आवे तो पण (ए
देवथी ) कोइ कृष्णराजि सुधी पहोंचाय अने कोइ कृष्णराजि सुधी न पहोंचाय अर्थात् हे गौतम ! कृष्णराजि एटली मोटी
कही छे. २४. प्र०--अस्थि गं भंते ! कण्हराईसु गेहा इ वा, गेहायणा २४. प्र०-हे भगवन् ! कृष्णराजिओमा गृहो भने गृहापणो
२४. उ०--णो इणहे समद्वे.
२४. उ०—( हे गौतम !) ९ अर्थ समर्थ नथी अर्थात् गृहो
विगेरे नथी. २५. प्र०--अस्थि णं भंते ! कण्हराइसु गामा इ वा ? २५. प्र०—हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां गामो वगेरे छे ? २५. उ०---णो तिणढे समवे.
२५. उ०--(हे गौतम !) ए अर्थ समर्थ नथी अर्थात् नथी. २६. प्र०--अस्थि णं मंते ! कण्हराईणं उराला बलाहया २६. प्र०--हे भगवन् ! कृष्णगजिओमां मोटा मेघो संस्वेदे छे, संसेयंति, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ?
संमूर्छ छे अने वरसाद वरसे छे ? २६. उ०--हंता, अत्थि.
२६. उ०—(हे गैतम !) हा, छे अर्थात ए प्रमाणे-प्रश्नमा
कह्या प्रमाणे-थाय छे. २७.७०--तं भंते । किं देवो पकरेति, असुरो पकरेति, २७. प्र०--हे भगवन् ! शुं तेने देव, असुर के नाग करे नागो पकरेति ?
-- १. मूलच्छाया:-धाधे कृष्णराजी षडलेदे उत्तर-दक्षिणवः कृष्णराजी श्यने, द्वे पौरस्त्य-पश्चिमे आभ्यन्त रिके कृष्णराजी चतुरने, द्वे उतरदक्षिणे आभ्यारिके कृष्णराजी चतुर-पूर्वारै पसे व्यस्ले पुनर्दशिगोतरे बाये, आभयन्तर चतुरस्राः सर्वा अपि च कृष्णराजयः. कृष्णराजयो भगवन् ! की यत्य आयामेन, कोयत्यो विष्कम्मेण, कीयत्यः परिक्षेपेग प्रज्ञता ? गतम ! अस्येवानि योजनसहरूाणि आयामेन, संख्येयानि भोजनसहस्त्राणि विष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेषेण प्रज्ञप्ताः. कृष्णराजयो म.गवन् ! किंमदत्यः प्राप्ताः । गीतम! अयं जम्बूरीपो.द्वीपः, यावत्-अर्धमा व्यतिबजेत, अस्त्येकका कृष्णराजी व्यतिव्रजेत् , अस्त्येकका कृष्णराजी नो व्यतिबजेत् ; इयद्महत्यो गतम! कृणराजयः प्राप्ताः सन्ति भगवन् । कृष्णराजिषु गेहनि इति, गेहापणा इति वा ? नो तदर्थः समधः. सन्ति भगवन् । कृष्णराजिषु प्रामा इति वा ? नो तदर्थः समर्थः. सन्ति भगवन् ! कृष्णराजीनाम् उदारा पलाहकाः सखियन्ति, संमून्छन्ति, वर्षा वर्षन्ति ? हन्त, अस्ति.तं भगवन् ! किं देवः प्रकरोति, असुरः प्रकरोति, नागः प्रकवि :
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