Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 340
________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उद्देशक ८. कारण के, ए बादर पृथिवीकाय पण त्यां रत्नप्रभानी नीचे नथी-एं तो पृथिव्यादिरूप पोताना स्वस्थानी ज छे-एम छतों अहीं बादरं अग्निसमाधान. कायनी पेठे बादर पृथिवीकायनो पण निषेध केम कों नथी ? समा०-सूत्रनी एवी शैली नथी के, ज्यां जे जे बधुं न होय ते ते सर्वनी नामवार यादी करीने ते बधानो निषेध करवो-रत्नप्रभानी नीचे मनुष्यो पण नथी अने ए रीते आपणा तीरछा लोकमा रहेनारा घणा जीवो अने भावो 'त्यो नर्थी, तो पण ते बधानो कोइ अहीं नामवार निषेध कयों नथी, कारण के, सूत्रनी शैली, गति वा संकलना विचित्र प्रकारनी छे माटे ज रत्नप्रभानी नीचे मनुष्योनी गेरहाजरीनी ज जेम बादर पृथिवीनी पण गेरहाजरी छे, छतां ए विषे अहीं कांइ कहेवामां आव्यु नथी अने अहीं रत्नप्रभा पृथिवीमां-'घनोदधि' वगेरे जलमय भावो छे तेथी ज त्यां अप्काय-पाणी-नी वायु, ( पवन ) नी अने वनस्पतिनी हयाती होय-ए नाग-असुर. हकीकत न कहेवा छतां समजाय तेवी सुगम ज छ [ 'नो नाओ' त्ति ]. आ उल्लेखथी एम कळाय छे के, नागकुमार, श्रीजी नरकपृथिवीथी वधारे आगळ जइ शकतो नहि होय. [ 'नो असुरो, नो नागो' ति] अहीं पण आपेला आ पाठ उपरथी एबुं तरी आवे छे के, चोथी नरक पृथिवीथी वधारे नीचे असुरकुमारनु अने नागकुमारनुं गमन नहि थइ शकतुं होय. सौधर्मनी अने ईशाननी नीचे तो चमरनी पेठे असुरकुमार जाय छे अने अशक्त होवाथी नागकुमार जतो नथी माटे ज कहे छः [ 'देवो पकरेइ ' इत्यादि.] अहीं बादर पृथिवीक य अने बादर अग्निपृथिवी वगेरे. .कायर्नु स्वस्थान नथी एटले उत्पत्तिस्थान नथी माटे ज ते बन्नेनो-बादर पृथिवीकायनो अने बादर तेउकायनो-अहीं जे निषेध दर्शाव्यो छे ते सुगम ज छे. तथा अप्कायनो, वायुकायनो अने वनस्पतिकायनो जे अनिषेध दर्शाव्यो छे ते पण सुगम ज छे, कारण के, सौधर्म अने ईशान तो उदधिप्रतिष्ठित होवाथी-उदधिने आधारे रहेला होवाथी-त्यां अप्काय अने वनस्पतिकाय संभवे छे तथा वायु तो बधे ठेकाणे होय छे माटे ते सनत्कुमारादि. त्यां पण होय ज. [' एवं सणंकुमार-माहिदेसु 'त्ति ] 'ए प्रमाणे एटले पूर्वे कया प्रमाणे सनत्कुमार अने माहेंद्रमा पण जाणवु ' ए जातनी भलामण करेली होवाथी एम अटकळी शकाय छे के, पूर्वनी पेठे ज अहीं पण-एटले सनत्कुमार अने माहेद्रमां पण, बादर अप्कायनो अने बादर वनस्पतिकायनो संभव छे अने ते, त्यां तमस्कायनी हयाती होवाथी सुसंगत पण थइ शके छे. [ ' एवं बंभलोयस्स उवरि सव्वेहिं ' ति] ए प्रमाणे ब्रह्मलोकनी उपर सर्वत्र एटले ठेठ अच्युत-स्वर्ग सुधी समजवू. अच्युत पछी तो आगळ देव पण जइ शकतो नथी, माटे ज तेणे करेला मेघ वगरेनी त्यां विद्यमानता पण नथी. [ 'पुच्छियव्वो 'त्ति ] बादर अप्काय, बादर अग्निकाय अन बादर वनस्पतिकाय संबंधे प्रश्न करवो, [ 'अन्नं तं चेव' ति ] ' बाकी बधुं ते ज प्रमाणे छ ' एम कहेवाथी आ प्रमाणे जाणी शकाय छ के, पूर्व जेनो जेनो निषेध करवामां अव्यो छ, तेनो अहीं पण निषेध समजवो अने अहीं जे विशेष हकीकत कही छे, ते सिवायनी बधी हकीकत पण पूर्वनी पेठे समजी लेवी. तथा अधिकृत वाचना द्वारा वेयकथी मांडी ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधीमां, पूर्वोक्त सर्व गृहादिकन निषेधन नथी कयु, तो पण तेने ( गृहादिने ) अहीं निषेधेलं ज समजी लेवं. संग्रहगाथा हवे पृथिवी वगेरे भावोनी ज्या ज्या हयाती जणाववानी छे-ते हकीकतने सूचववा संग्रहगाथा कहे छ: [' तमुक्काए' गाहा. ] [ तमुक्काए ' ति] प्रथम कहेवाएला तमस्कायना प्रकरणमा [' कप्पपणए 'त्ति ] अने हमणां कहला सौधर्मादि पांच देवलोकोमा [ अगणि-पुढवी यत्ति] अग्निकांय अने पृथिवीकाय संबंधे आ प्रमाणे प्रश्न करवोः "हे भगवन् ! बादर पृथिवीकाय अने बादर अग्निकाय छे ? (हे गौतम ! ) आ अर्थ समर्थ नथी अने आ निषेध, विग्रहगतिसमापनक सिवायना बादर पृथिवीकाय अने बादर अग्निकाय माटे जाणवो. ""हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमनीचे बादर अग्निकाय छे?" इत्यादि अभिलाप बडे [ ' अगणि ' त्ति ] अग्निकाय विषे [ ''पुढवीसु 'त्ति ] रत्नप्रभा वगेरे पृथिवीओना सूत्रोमा प्रश्न करचो. तथा " हे भगवन् ! बादर अप्काय, बादर तेजकाय अने बादर वनस्पतिकाय छे ? (हे गौतम ! ) आ अर्थ समर्थ नथी" ११, त्रीजीमा ९, चोथीमा ७, पांचमीमां ५, छट्ठीमा ३ अने सातमीमा एक प्रतर छे. ए सातेमां मळीने कूल ४९ प्रतरो छ तथा पेली पृथ्वीमां त्रीश लाख नरकावासो (नारकिओने रहेवानां ठेकाणां) छे, बीजीमां पच्चीश लाख, त्रीजीमा पन्नर लाख, चोथीमां दस लाख, पांचमीमांत्रण लाख, घटीमा ९९९९५ अने सातमीमां पांच नरकावास छे-ए बधा मळीने कूल ८४००००० नरकावासो थाय थे. उपरना प्रथम प्रतरतुं नाम 'सीमंतक' अने छल्ला प्रतरतुं नाम 'अप्रतिष्ठान' छे. पहेली बे नरकमा रहेनारा जीवोनी 'कापोत' लेश्या हाय छ, त्रीजीमा रहेनाराओनी 'कापोत' तथा 'नील' लेश्या होय छे, चोथीमा 'नील', पांचमीमां 'नील' तथा कृष्ण भने छट्ठी, सातमीमां कृष्ण लेश्या हाय छ-नीचे नीचेनी पृथ्वीओमा ए लेश्याओ वधारे वधारे संक्लिष्ट होय छे. जे जीवो पहेली नरकमा पड्या होय तेओना शरीरनी उंचाइ ७॥ धनुष अने छ आंगळ छे अने त्यार पछीनी नरकमां कमे क्रमे एथी बमणी बमणी उंचाइ होय छे. पहेलेथी त्रण नरक सुधी उष्ण वेदना, चोथीमा उष्ण अने शीत, पांचमीमां शीत अने उष्ण अने छटी, सातमीमां शीत वेदना होय छे-ए वेदनाओ पण नीचे नीचेनी पृथ्वीओमा वधारेने वधारे तीव्र होय छे. ए नरकमा रहेला जीवोने अवधिज्ञान अथवा विभंगज्ञान होय छे. पहेलेथी प्रण नरक सुधीनी ए नरकोमां, संसारस्थ कोटवाळ के फोजदारनी पेठे शिक्षा करनारा जुदा होय छे अने बाकीनी बीजी बधीमा तो त्या त्या रहेला ए जीवो ज पोत पोतानी में एटले परस्पर लडीने ज शिक्षाने उभी करे छे. पहेली नरकमा रहेला जीवोनुं वधारेमां वधारे आयुष्य एक सांगरोपमनु ( सागरोपम माटे जूओ भ. 'बी. खं. पृ. ३२२-३५५) होय छे, बीजीमांत्रण सागरोपमनु, त्रीजीमां सात सागरोपमनु, चोथीमा दश सागरोपमनु, पांचमीमां सत्तर सागरोपमन, छटोमा बावीस सागरोपमनुं अने सातमीमां तेत्रीश सागरोपमर्नु वधारेमा वधारे आयुष्य छे. असंशी जीवो जो नरके जवाना होय तो पहेली नरकमां जाय. एज प्रमाणे भुजपरिसी ( नोळिया वगेरे) बीजी नरक सुधी, पक्षिओ श्रीजी नरक सुधी, सिंहो चोथी नरक सुधी, उरपरिसर्पो (नाग वगेरे) पांचमी नरक सुधी, सीओ ट्री नरक सुधी अने मनुष्यो सातमी नरक सुधी जइ शके छ अर्थात् ए ए जीवोमा पापनो प्रकृष्टमां प्रकृष्ट परिणाम ते ते नरक सुधी पहोंचवा जेटलो होइ शके छे. नरकमांथी पाछा आवेला केटलाक तिर्यच के मनुष्य थाय छ, पण फरीने तुरत ज पाछा नरकमां जता नथी. नरकमांथी नीकळेला केटलाक मनुष्य थएला तीर्थकर पण थाय छ, पहेलो नरकथी नीकळेलो जीव मुक्तिने पण मेळवी शके छ, बीजी चार नरकथी नीकळेलो जीव मात्र संयमने लाभी शके छे, छट्ठीथी नीकळेलो जीव देश-संयमने मेळवी शके छ भने सातमीथी नीकळेलो 'जीव मात्र सम्यक्त्वने पामी शके छे अर्थात् ए ए नरकमाथी नीकळ्या पछी प्राप्त यती तरतनी जींदगीमां ए ए जीवो एटलो एटलो ज विकास करी शके छ:-जूओ, तत्वार्थसूत्र, अध्याय त्रीजो, सूत्र १-२-३-४-५ अने ६ (मेसाणा) जेम उपर सात नरकोना नामो जणाव्यां छे ते रीते नहि तो बीजी रीते महर्षि पतंजलिजीए पण चौद भुवनोनी व्याख्या करता आ. सात महापाताळो जणाव्यां छ: “१ पाताळ, २ रसातल, ३ महाराळ, ४ तळातळ, ५ सुतळ, ६ वितळ अने अतळ " जओ, पातंजलयोगदर्शन, विभूतिपाद. सू०६६ (नथुराम पार्मा : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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