Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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३०६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ६.-उद्देशक ५. १. आगळना उद्देशकमां सप्रदेश जीवो कहा, हवे सप्रदेश एवा ज तमस्कायादिकने कहेवा पंचम उद्देशक कहे छ:-"किमियं' इत्यादि.] तमस्काय. [ 'तमुकाए ' ति] तमस-तमिस्र-अंधकार-पुद्गलोनो काय एटले राशि ते तमस्काय, अहिं ते तमस्कायनो अमुक ज के द स्कंध विवक्षित छ,
अने तेवो ते स्कंध, पृथ्वीरजनो स्कंध होय के पाणिनी रजनो स्कंध होय, पण बीजो तो न होय, कारण के, पृथ्वीनी अने पाणीनी रजना स्कंध सिवाय बीजो स्कंध तादृश-तमस्कायनी जेवो- नथी होतो, माटे तमस्कायना स्वरूप संबंधे पृथिवी अने जल विषयक संदेह थतो होवाथी कहे छः [' किं पुढवी ' लादि.] ते व्यक्त छे. [ 'पुढवीकाए णं ' इत्यादि.] कोइ एक शुभ-भास्वर-दीप्तिवाळो-पृथिवीकाय छे-जे भाखर होवाथी अमुक क्षेत्रना भागने मणि वगेरेनी पेठे प्रकाशित करे छे, तभा कोइ एक एको पृथिवीकाय छे के, जे अभावर होवाथी प्रकाश्य-प्रकाशी शकाय
तेवा-वीजा पृथिवीकायने पण अंध पत्थरनी पेठे प्रकाशतो नथी अने अप्काय-पाणी-तो एवो नथी, कारण के, ते बधी जातनो पण अकाय तमक य अने पाणीनी अप्रकाशक छे, तथा आ तमस्काय पण अप्रकाशक छे -ए रीते अप्वाय अने तमस्काय ए बन्नेनो एक सरखो-मन-तो-स्वभाव होवाथी तमस्कायना समानता. परिणामी कारण तरीके अप्काय ज होइ शके छ अर्थात् तमस्काप ए, अमायनो परिणाम ज छे. [ ' एगपएसियाए 'ति] बे, त्रण वगेरे नहि
पण उपर अने हेठळ जमा एक ज ( सरखा ? ) प्रदेश छ ते 'एकप्रदेशिका श्रेणी' कहवाय, ते अणिवडे एटले समभित्तिपणे. अहीं 'एकप्रदेशिका
श्रेणी' नो अर्थ ' समभित्तिपणे ' करतो, किंतु ' एक प्रदेशिका श्रेणी' एटले 'प्रमाणे करीने एक प्रदेशबाळी श्रेणी' एवो अर्थ न करवो. कारण जलजीव, के, 'प्रमाणे करीने एक प्रदेशवाळी श्रेणी' एवो अर्थ अहीं तमस्कायनी शेणीने घटी शके तेम नथी-तमस्काय स्तिबुकाकारे जल जीवरूप छे अने
जीवोने पोतानी स्थिति माटे असंख्यात प्रदेशोने रोकवा पडे छे एथी जो अहीं तमस्क यनी श्रेणिने 'प्रमाणे करीने एक प्रदेशवाळी श्रेणी' मानवामां आवे तो ए घणी ज टुंकी होवाथी एमां ए जलजीवो शी रीते रही शके ? त| तमस्कायनी विस्तीर्णताना संबंधमां पण हवे पछी कहेवाबार्नु छे-एम ए बन्ने निमित्ताने लइने अहीं 'प्रमाणे करीने एकप्रदेशवाळी श्रेणी' अर्थ घटी सके ज नहि. [ 'एत्थ णं 'त्ति] प्रज्ञापकना आलेख्यनां आळंखेला एटले जणावनारे चितरेला चित्रमा जणाता अरुणसमुद्रागिनुं अधिकरणपणुं दविवा 'एत्थ ' एटले “ अत्र'-अहीं-एम
कमु छे. [' अहे' इत्यादि.] नीचे मलकमूळ संस्थित छे एटले तमस्कायनो नीचनो अकार शराव--बुध्ननी · जेवो के, कारण स्थापना. के, समजलांतनी उपर १७२१ योजन सुधी ते तमस्काय वलय संस्थाने छे. तेनी स्थाना-आकृति-आ प्रमाणे छे:--
विष्कंभ. [ 'केवइयं विक्खंभेणं' ति ] विष्कंभ एटले विस्तार, ते वडे, कोइ प्रतिम [ 'आयाम-विक्खंभेणं ' त्ति ] एवो पाठ देखाय तमस्कायको विस्तार, छे, तेमां · आयाम ' एटले ' उंचाइ ' समजवी. [ · संखेजवित्थडे' इत्यादि.] संख्यात योजन विस्तारवाळो अर्थात्
/शराबबुध्न शरुआतथी मांडी उंचे संख्येय योजन सुधी तो ए संख्येय योजन विस्तारको छे अने त्यार बाद असंख्येय योजन विस्तार
वाळो हे, कारण के, उपर, ते तमस्कायने विस्तारगामिपणे कह्यो छे. [' असंखेजाई जोयशमसाई परिक्खवेणं' ति ] जो के, परिक्षेप. तमस्कायतुं विस्तृतपणु संख्यात योजन छे तो पण ते तगस्कायने असंख्याततम द्वीपनो परिक्षेप होवाथी तेनी बृहत्तरता छ माटे ।
ज तेना परिक्षेपर्नु प्रमाण असंख्यात योजन सहस्र कल्यु छ, अने अंदरना अने बहारना परिक्षेपनो विभाग तो कह्यो नथी, कारण के, असंख्यान पणाने राइने वन्ने परिक्षेपर्नु पण तुल्यपणुं छ. [ देवेण' इत्यादि. ] हो देव आ महर्षिक वगेरे विशेषणो अहीं शा प्रसंगे कह्यां छे? तो कहे छे के, [जाब इणामेव ' इत्यादि. ] अहिं ' यावत् ' शब्द ' ऐदपर्य ' अर्थवालो छ अर्थात् ' अमुकथी अमुक सुधी' ना भावने ए, दाब्द सूचवे छे. कारण के, गमनसागर्थ्यनो प्रवर्ष जणाबवाना अभिप्रायथी ज देवन ए 'महर्षिक' वगरे विशेषगो कह्यां छे. [: इणामेव इणामेव त्ति
कट्ट] ए वाक्य, 'आ गमन आ प्रमाणे छे' अर्थात् ' आ चाल्यो ज' ए प्रमाणे अतिशीघ्रपणुं जगावनार चपटीरूप हाथनी क्रियाने दर्शावया केवलयल्प, कह्य छे. 'आ चाल्यो ज' एग करीन, [ 'केबलकप्पं ' ति ) कवकल्प एटले केवल ज्ञानसमान अर्थात् परिपूर्ण, वृद्धव्याख्या प्रमाणे तो केवल वृद्धग्याख्या. कप' शब्दनो 'आ प्रमाणे अर्थ थाय है:-" केवल एटले संपूर्ण अने कल्प एटले खकार्य करवामी समर्थ वस्तुरूप, अर्थात् केवलकल्स एटले
संपूर्ण-समर्थ-तेने," [लिहिं अच्छरानिवाएहिं ' ति ] त्रण चपटीओ वडे, [ 'तिसत्तखुत्तो ' त्ति ] जण गणा सात ते त्रिसप्त एटले एकवीशवार, [ 'हवं 'त्ति ] शीत्र. [ ' अत्थेगइयं ' इत्यादि.] संख्यात योजन प्रमाण तमस्काय सुधी पहोंचे, अने इतर-बीजा-असंख्यात योजन प्रमाण-तमस्काय. सुधी तो न पहोंचे. [ · उगला बलाहय ' त्ति ) मोटा मेघो, [ ' संसेयंति ' त्ति ] संखद पामे छे एटले तजनक पुद्गलोना
स्नेहनी संपत्तिथी समूझे छे, कारण के, मेघनां पुद्गलो मळवाथी तेनी तदाकारपणे उत्पत्ति थाय छे. [ ' तं भंत ! ' ति. ] ते संखेदन-समूठन-ने विद्यत. अने वर्षणने. [ ' बायर विज्जुयारे ' ति ] अहिं । बादर विद्युत् ' शब्दथी बादर तेजस्कायिको न समजवा, कारण के, अहिं ज तेओनो निषेध
करवानो छे, पण देवना प्रभावथी उत्पन्न थएला ते भास्वर-दीप्तिवाळां-गुद्गलोने अहीं बादर तेजरूपे समजवानां छे, [ 'णण्णत्व विग्गहगइबादर पथिवी ने समावण्णएणं ' ति ] अर्थात् ज्यां तमस्काय छे त्यां वादर पृथिवी अने बादर अभि-तेज-नथी होतां-बादर पृथिवी तो रत्नप्रभादि आठ पृथिवी
तेज, ओमां, गिरिओमा अने विमानोमा ज होय छे तथा बादर अग्नि (तेज) मनुष्य-क्षेत्रमा ज होय छे माटे तमस्कायवाळा प्रदेशमा बादर पृथिवी
१. खरी रीते तो इनमेव इणामेव 'त्ति ने बदले व्याकरणनी दृष्टिए 'इणामेवं इणामेवं ' ति थर्बु जोइर-पण आ प्रयोगनी अर्षनाने लीधे 'एवं ' नो अनुखार लोपायो छे. तथा शीघ्राणाना अतिशयने जणाववा 'इणामेव ' ए शब्दनो द्विभव ( बेवडो उच्चार ) करेलो छे अने 'इति' शब्द 'उपप्रदर्शन'ना अर्थने सूचवे छे:-धीअभय.
२. · केवलकप्प' शब्दनो अर्थ मज्झिमनिकाय (युद्धना सूत्र पिटक संबंधी ) ग्रंथमां आ प्रमाणे करेलो छे:" केवलकप्पं अनवसेसं समंततो."
" केवलकल्प एटले कोइ बाकी नहि-चारे बाजुनु-बधुं." "आरो अज्जतरा देवता अभिकन्ताय रतिया अभिवंतवण्णा "हवे अभिकांत वर्णवाळी कोइ एक देवता अभिकत राबीमा केवल. केवलकप्पं अन्धवनं ओभासेत्वा ४ तेनुप संकमि."
. कल्प ( आखा ) अंधवनने अवभासित करीने ते तरफ गई."
-मज्झिमनिकाय, वम्मीक सुत्त-२३ ( रा.पृ०१०१):अनु. ३. भहीं ' केवल ' अने कल्प ( कप्प) शब्दनो कर्मधारयसमास करयानो छ:-श्रीअभय० ४. भी पापमी विभकिमा अर्थमा श्रीजी विभक्ति नपराएली -एन धारण मा प्रयोग प्राकृतपणु के-धीअभय
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