Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 332
________________ ३२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे सतक उद्देश ७ 3 C , ' हवासैः स्तोकः स्तोका सवे सप्त, ततो जयः सप्तभिर्गुणितो जाता एकोनपञ्चाशत् मुहर्ते च सहसातिया इति सा एकोनाशता गुणिता इति जातं यथोक्तं मानमिति एता साथ गणिवस्त्र सिए ति एतावान् शीर्षप्रहेलिकाप्रवरिपरिमाण तावत् इति क्रमार्थः गणितविषय गणितगोचर:- गणितप्रमेय इत्यर्थः उपमिति उपमया प्रमाणम् अनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकमिति भावः उपमान्तरेण यत् २. आगळा प्रकरणां धान्योनी योनिनी काळस्थित बही के माटे हवे आ प्रकरण फाळस्थितस्वरूप रूपया साठे कहे छे के, [ ' ऊसासद्धा वियाहिय ' त्ति ] भगवंतोए कहेलुं छे के, उच्छ्वासाद्वा एटले उच्छ्वासो द्वारा मपाएला एक प्रकारना काल विशेषो. अहिं उत्तर दर्शावे छे, [' असंखेज्ज ' इत्यादि . ] असंख्यात समयोना जे समूहो, तेनी ज समितिओ ( मीलनो ) अने तेओनो जे समागम - संयोग-ते ८ , आपलिका. समुदयसमितिसमागम काय ते बड़े ने कालमान पाये ते एक आयलिका हेवा [सेजा आवलिय ]ि आ पोस से के, लकमत्र. २५६ आवलिकाओनुं एक क्षुल्लकभवग्रहण थाय छे, तवां १७ थी वधारे क्षुल्लकभवग्रहणो एक उच्छ्वासनिःश्वास काळमां थाय छे एटले ए प्रमाणे उच्छवास संख्याता आवलिका ते एक उच्छवास काल कहेवाय. [ 'हट्ठस्स' इत्यादि. ] हृष्ट एटले तुष्ट, अनवकल्य एटले घडपणथी नहि गांजेला अने निरुपमटि एटले वर्तमानकाले अने पूर्वे पण व्यापि विराना मनुष्यादिनो जे' एक उच्छवास निवास-अर्थात् उच्छवास सानो निश्वास ए प्राग स्व.क. कहेवाय छे, [' सत्त ' इत्यादि ] गाथा कहे छे, [' सत्त पाणूई 'ति ] सात प्राण एटले जे' सात उच्छ्वासनिश्वास ते स्तोक कहेबाय छ, ए प्रमाणे भजे सात स्तोक ते एक उप ७७ सब से, एक मुस्तु वाले छे. 'तिमि सहस्सा ] गाहा, आ गाथानो मावार्थ: 6 3 प्राण. लव. [ सात उच्छ्वासनो एक स्तोक थाय छे, एक लवमां सात स्तोक होय छे मांट लवने सातगणो करवाथी एक लवना ओगणपच्चास उच्छवास थया मुहूर्त. अने एक मुहूर्तमां ७७ लव होय छे माटे ते सत्योतेर लवनो ४९ उच्छवास साथे गुणाकार करवाथी गाथामां कहेलं एक मुहूर्तना उच्छवासोनुं 6 आ प्रमाण ३७७३ - बराबर थाय छे, [' एताव ताव गणियस्स विसए' त्ति ] अहीं जणावेली 'आत्रलिका ' थी मांडी तद्दन छेली काळसूचक सुपीनो-एले कने करीने ए डेली संख्या सुधी जगणितनो विषय हेरेवारे कदा मांडीने अहीं सुधी ज संख्याशी ' कानुं प्रमाण गणी शकाय छे अने त्यार पछीना काळ माटे आंकडानुं गणित काम नथी आवतुं, पण अमुक उपमाओ द्वारा ज ते पछीनो काळ औमिक. मापी शकाय छे. [' उबमिए 'त्ति ] उपमाथी जणाय ते औरमिक अर्थात् अतिशय ज्ञानी सिवायना साधारण लोको जे काल-प्रमाणने उपमा विना न ग्रही शके ते काल प्रमाण ' औपमिक ' कहेवाय - ए तात्पर्य छे. उपमेय काळ - पल्योपम, सागरोपम ५. प्र०से कि उभिए ५. उ० -- उभिए दुविहे पत्ते, तं जहाः - पलिओ मे य, सागरोपमे व. ६. प्र० - से किं तं पलिओवमे, से किं तं सागरोवमे ? Jain Education International ६. प्र० - ( हे भगवन् ! ) पल्योपम ते शुं कहेवाय ? अने सागरोपम ते शुं कहेवाय ? ६. उ० ६. उ० --- (• हे गौतम! ) सुतीक्ष्ण शस्त्र वडे पण जेने • सत्येण सुतिपय विछेतुं भेतुं च फिर न सका, छेदी, मेदी न न शकाय ते परम अणुने केवलिओ सर्व प्रमाणोनी सुतिक्खेण जं तं परमाणु सिद्धा यंति आई पमाणाणं. ' पा, अनंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा ओहिया सहसण्डिवा इवा, उरे तसरेणू इषा, रहरेणुतिया, सालग्गा पा, लिखा इ यूवा, जनमज्झेथा, अंगुले या अह उस्सम्हस हियाओ साएगा सहसहिया, अट्ठ सहसहियाओ मा एगा उडुरेणू, अट्ठ उड्डुरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरु - उत्तरकुरुगाणं मस्साणं वालग्गे; एवं हरिवास- रम्मूग हेगवय - एरनवयाणं, पुव्यपदेहार्ण मणूसाणं जग्गा सा एनालिसा, ५. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते औपमिक शुं कहेवाय ? ५. उ०- ( हे गौतम ! ) ते औपमिक बे प्रकारनुं कह्युं छे, ते जेम, एक पल्योपम अने बीजुं सागरोपम 5. आदिभूत प्रमाण कड़े छे. अनंत परमाणुओना समुदायनी समि तिओना समागमवडे ते एक उच्छलक्ष्णलक्ष्णिका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णका ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बासाघ्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य अने अंगुल थाय छेपारे आठ उच्छा मळे त्यारे ते एक लक्षणलक्ष्णिका धाय आठ मणिका मळे त्यारे से एक ऊर्ध्वरेणु; आठ ऊर्ध्वरेणु मळे त्यारे ते एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणु मळे त्यारे ते एक रथरेणु अने आठ रपरेणु मळे त्यारे ते देवकुरुना अने उत्तरकुरुना मनुष्योनुं एक वला थाय छे. ए प्रमाणे देवकुरुना अने उत्तरकुरुना मनुष्पनां आठ वाला ते हरिवर्षना अने रम्यकला मनुष्य एक वाडाम, हरिवर्षना अने रम्यकना मनुष्यन + १ अहीं था' अने' जे' ए बन्ने अर्थ अध्याहारंगम्य छे. २. ' कहेवाय छे' ए अर्थ, आ गाथाना आगळना भागनां आवेलो छे, अने तेने अहीं पण घटाववानो छे:--श्री अभय० 024 १. मूलच्छायाः अथ किं तद् और्मिकम् ? औपमिकं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा पहयोग व सागरोपमं च अथ किं तत् पल्योपमम्, तदापति आना , किं पुंगलानां समुदय समितिसमागमेन सा एका उत्श्वणका इति वा श्लक्ष्णश्लक्ष्णकेति वा, ऊर्ध्वरेणुः इति ना, प्रसरेणुः इति वा, रथरेणुः इति वा वालाप्रम् इति वा, लिक्षा इति वा, थूका इति वा, यवमध्यम् इति वा अङ्गुल इति वा; अष्ट उत्श्लक्ष्णकाः सा एका श्लक्ष्णश्लक्ष्णका, अष्ट श्लक्ष्णश्वषिणकाः सा एका ऊर्ध्वरेणुः, अष्ट ऊर्ध्वरेणवः सा एका त्रसरेणुः, अष्ट त्रसरेणवः सा एका रथरेणुः, अष्ट रथरेणवः सा एक देवकुरु- उत्तरकुरुकानां मनुष्याणां बालाप्रम् एवं हरिवर्ष- रम्यक हेमवत - ऐक्तकानामू, पूर्वविदेहान मनुष्याणाम् अद्य वाचामाणिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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