Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 299
________________ शतक ६. उद्देशक ४. भगवत्सधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २८९ नेरेइएसु छम्भंगा. अकसाई-जीव-मणुएहि, सिदहिँ तियभंगो. अने अलेश्य मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. सम्यग्दृष्टिओमा जीवादिक ओहियणाणे, आभिणियोहियगाणे, सुय गाणे जीवाइओतियभंगो. ऋण भांगा जाणवा, विकलेन्द्रियोमा छ भांगा जाणवा, मिथ्यादृष्टिविगलिदिएहि छम्भंगा. ओहिणाणे मण-केवलणाणे जीवाइओ ओमा एकेन्द्रिय व ने त्रण भांगा जाणवा. सम्परमिध्यादृष्टि ओमां तियभंगो. ओहिए अन्नाणे, महअन्नाणे, सुयअन्नाणे, एगिदि- छ भांगा जाणवा. संयत जीवोमा जीवादिक त्रण मांगा जाणवा. यवजो तियभंगो. विभंगनाणे जीवाड़ओ तियभंगो. सजोगी जहा असंयतोमा एकेन्द्रियब र्जीने त्रण भांगा जाणवा. संयतासंयतोमा ओहिओ, मणजोगी, यजोगी, कायजोगी जीवाइओ तियभंगो, जीवादिक त्रण मांगा जाणवा. नोसंयत नोअसंयत अने नोसंयनवर:-कायजोगी एगिदिया, तेस् अभंगयं. अजोगी जहा तासंपतोमां-जीव सिद्धोमां-त्रण भांगा जाणवा. सकषायोमांअलेस्सा. सागारोवउत्त-अणागारोवउत्तेहिं जीव-एगिदियवजो कषायवाळाओमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, अने सकषाय तियभंगो. सवेयगा य जहा सकसाई. इथिवेयग-परिसवेयग- एकेदियोमा अभंगक-त्रण भांगा नथी पण एक भांगो-छे, क्रोध नपंसगवेयगेस जीवाइओ तियभंगो, नवरः-नपंसगवेदे एगिदिएस कपायिओमां जीव अने एकेन्द्रिय वीत्रण भांगा जाणवा. देवोमा अभंगयं. अवेयगा जहा अकसाई. ससरीरी जहा ओहिओ. छ भांगा, मानकषायवाळमां, मायाकषायवाळामां जीव ओ ओरालिय-वेउनियसरीराणं जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो. आहा- एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. नैरयिक अने देवोमा छ रगसरीरे जीव-मणुएसु छन्भंगा, तेयग-कम्मगाणं जहा ओहिया. भांगा जाणवा. लोभ कषायवाळामां जीव अने एकेंद्रिय वर्जीने असरीरोहिं जीव-सिद्धोहिं तियभंगो. आहारपजत्तीए, सरीरपज्जत्तीए त्रण भांगा जाणवा. नैसयिकोमा छ भांगा जाणवा. अकपाथिमा इंदियपजत्तीए, आणपाणपजत्तीए जीव-एगिदिययज्जो तियभंगो. जीव, मनुज अने सिद्धोमां त्रण भांगा जाणवा. औधिक ज्ञानमां. भासा-मणपजत्तीए जहा सन्नी, आहार-अपज्जत्तीए जहा अणा- आभिनिबोधिक-ज्ञानमां, श्रुतज्ञानमा, जीवादिक त्रण भांगा हारगा, सरीर-अपज्जत्तीए, इंदिय-अपजत्तीए, आणपाण-अपजत्तीए जाणवा. विकलेंदियोमा छ भांगा जाणवा. अवधिज्ञानमां, जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो, नेरइय-देव-मणएहिं छम्भंगा,मासा- मनःपर्यवज्ञानमां अने केवलज्ञानमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. मणअपजत्तीए जीवाइओ तियभंगो, णेरड्य-देव-मणएहिं छम्भंगा. ओधिक अज्ञानमा, मतिअज्ञानमां अने श्रुतअज्ञानमा एकेंद्रिय वर्माने त्रण भांगा जाणवा. विभंगज्ञानमां जीवादिक त्रण भांगा जागवा, जेम औधिक कह्यो तेम सयोगी जाणवो, मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगिमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. विशेष ए के, एकेंद्रिय जीवो काययोगवाळा छे अने तेओमां अभंगक-जाजा भांगा नथी-पण एक भांगो-छे. जेम अलेश्यो कह्या तेम अयोगिजीवो जाणवा. साकार उपयोगवाळामां अने अनाकार उपयोग वाळामां जीव तथा एकेंद्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. जेम सकषायी-कषायपाळा-कह्या तेम सवेदक-वेदवाळा-जीवो जाणवा स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक अने नपुंसकवेदकोनां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, विशेष ए के, नपुंसक वेदमां एकेंद्रियो माटे अभंगा-जाजा भांगा नथी-पण एक भांगो छे. जेम अकषायीकषायरहित जीवो कह्या तेम अवेदक-वेदविनाना-जीवो 'जाणवा जेम औधिक-सामान्य-जीव कह्या तेम सशरीरी-शरीरवाळा-जीवो जाणवा. औदारिक अने वैक्रिय शरीरवाळा माटे जीव तथा एकेंद्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. आहारक शरीरमां जीव अने १. मूलच्छायाः-नैरयिकेषु षड् महाः. अकष यि- जीव-मनुजेषु, सिद्धेषु त्रिकभङ्गः, अधिक ज्ञाने, आभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने जीवादिकस्त्रिकमा विकलेन्द्रियेषु षड् भन्नाः, अवधिज्ञाने, मनः-केवलज्ञाने जीवादिकस्विम्भाः , औषिकेऽज्ञाने, मयज्ञाने, श्रुताऽज्ञाने एकेन्द्रियवर्जखि भङ्गः. विभङ्गज्ञाने जीवादिकस्त्रिकमाः. सयोगी यथा अधिकः, म योगिनि, वचोयोगिनि, काययोग ने जीवादि कनिकभाः,नवरम्-काययो. गन एकेन्द्रियास्तेषु अभाकम्. अयोगनो यथाऽलेश्याः. साकारोपयुक्ता-ऽनाकारोपयुक्तेषु जीके न्द्रयवर्जस्त्रिकभङ्गः. सवेदकाश्च यथा सकषायिणः, स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक-नपुंसकवेदकेषु जीवादिकत्रिकभङ्गः, नवरम्ः नपुंसकवेदे एकेन्द्रिये अभन्नकम् . अदेका यथाऽकषायिणः, सशरीरी यथा औधिकः, आदारिक-वक्रियशरीरेषु जीवकेन्द्रियवर्जनिकभाः, आहारकशरीरे जीव-मनुजेषु षद भागः, तेजस-कामका (णा) नां यथाषिकाः, अशरीरेषु जीव-सिद्धेषु विकभगः. आहारपर्याप्ती, शरीरपर्याप्ती, इन्द्रियपर्याप्ता, आनप्राणपर्याप्ता जीवै-केन्द्रियवर्जनिकभाः, भाषा-मनःपर्य प्ता यथा संशी, आहारअपर्याप्ता यथाऽनाहा. रकाः; शरीराऽपर्याप्ता, इन्द्रियाऽपर्याप्ती, आनप्राणाऽपर्याप्ती जीवकेन्द्रियवर्जलिकभन्नः, नैरयिक-देव मनुजेषु षड भनाः, भाषा-मनस्यामा जीवादिक स्त्रिकभङ्गः, नैयिक-देव-मनुजेषु पड् भरगाः-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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