________________
शतक ६:-उदेशक ४.
स्वामी भगवतीसूत्र.
C
यथासंभव जीवो
यां
J
अने सिद्ध पद न क [ अयोगी जहा लेख 'ति ] ते अयोगिनी तानी-लेयारहित जोगी समान होवाथी बने कम अयोगीनी वक्ता अनी पेठे जागावी, तेथी बीजा दंडक योग जो अने दि भांगा कश्या अने अयोगी मनुष्योगां मां का [' सागार इत्यादि ] साकार उपयोगवाव्य अनं अनाकार उपयोग गैरवाप दिमां त्रण भांगा जाणवा, जीवपदमां अने पृथिव्यादि पदोमां ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो' ए प्रमाण एक ज भांगो जाणवो अने तेओमां, बेमांथी कोइ उपयोगथी कोइ उपयोगमां जतां प्रथमतर समयोमां अपदेशत्वनी अने सप्रदेशत्वनी भावना करवी सिद्धोने तो एकसमयोपयोगिपणुं छे तो एकसमये पयेोग पण साकार उपयोगनी अने इतर - निराकार - उपयोगनी वारंवार प्राप्ति होवाथी सप्रदेशपणुं अने एकवार प्राप्ति होवाथी अप्रदेशपशुं जाणवु, अने
ए
प्रमाणे साकार उपयोगने वारंवार प्राप्त एवा घणा सिद्धोने आश्री ' सप्रदेशो' ए प्रमाणे एक मांगो जाणवो, अने तेओने ज तथा एकवार साकार साकार उपयोग प्राप्त एवा एक सिद्धंन आधी बी से मांगो जागो तथा तेजोगे अने एकवार साकार उपयोग प्राप्त एवा वथा सिद्धोने आधीने श्रीगो भांगो जावो. अनाकार उपयोगमां तो वारंवार अनाकार उपयोगने प्राप्त एवा घगाने आश्री प्रथम भांगो जाणवो, अने तेओने ज तथा एकवार अनाकार. अनाकार उपयोग प्राप्त एवा एक सिद्ध जीवने आश्री बीजो भांगो जाणवो अने बन्नेना पण एटले अनाकार उपयोगने एकवार प्राप्त अने वारंवार भात एना पण अमीनो भांगो जागो [सगाव जहा सकता ति] जैम सकायो का रोग वेदको पण जाणवाद. कारण के, वेळाने पण जीयादिपदम श्रग भांगा था के अने एसेंद्रियोगां एक मांगो थाय छे तेन अहं वेदने पामेला घणाने तथा अभिय
,
[
या साद वेदनेपासता एकादि जीवोने अपेक्षी व भांगा जाणवा. [ इत्थीय दत्यादि] बळी यार एक बेदधी बीमा वेदमा परे संक्रमण थाय त्यारे प्रथम समये अप्रदेशपणुं अने बीजा समयोमां सप्रदेशपशुं समजी पूर्वनी पेठे त्रण भांगा कहेवा, नपुंसक वेदना बन्ने दंडक मां तो एकेंद्रियोमा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो 'ए प्रकारनो एक ज भांगो पूर्वोक्तयुक्तिथी जाणवो. स्त्रीदंडकमां अने पुरुष दंडकमां देव, पंचेद्रियतिर्यच अने मनुष्य दो ज कवां अने नपुंसकदंडकमां तो देवोने वर्जीने बीजां पदो कहेवां, अने 'सिद्ध' पद तो सर्व वेदमां पण न कहेयुं. [ 'अयगा अवेद.. हा असाच ] जीव मनुष्य अने शिद्ध ए पदोमा अदकताने आधीने अकवायिनी पेठे प्रण मांगा
6
"
हेवा, समरी का अनादि, अरवि
"
ओहियो ति] औपिकदंबकनी पेठे सरीरीना ने डकर्मा जीवपदां सप्रदेश न कहें- कारण के, सरी कादिमां तो सरीरपणानुं बहुल्य होयी अंग मांगा हेवा अने एकेन्द्रियोग तो भी जो मांगो को [ ओरालि गिदियो तिर्मगोति औवारिकादिशरीरी एटले ओदारिकशरीरवाळा भने वैकिपरीवाळा जीओ लड़नेत्रीओ एक भागधा छे, कारण के जीवन अने एकदम अनुएले
J
ज
7
अने माफीनामांण भांगा यांव, कारथ के माफीना से मिले तथा औदारिकने अने बैकियने छोडी दह ( बीजा) औदारिकने अने क्रियने पामता एकादि जीवो. अऔदारिडंना व दंडकमा नरयिको अने देवो न देवा ने बेडिया ने
4
सोमपी पाणी, तेज, वनस्पति अने विकलेदियो न या अनेक बैंकिगडकमा एकेंद्रियपदमां से भीगो मांगो को छे ते, अर्थस्यात वायुओनी प्रतिक्षणे थती वैकियक्रियाने अपेक्षीने को तथा अने मनुष्यो, जो के वैश्यला थोडा तो पण ओम जे भांग का है, ने उड़ने से पंद्रियो भने मनुष्यो- जोशी संख्यामा देकियावस्थायाळा होना जोइए एम संभवे के तथा पंचेंद्रियसिचो भने मनुष्योमा एकादि जीवोने तेमी (डिवसरीरनी) प्रतिपद्यमानता जाची. [ आहार इत्यादि ] आहारक शरीरने आश्री जीवमां अने मनुष्योमां पूर्वोक्त छ मांगा जांणवा, कारण के, आहोरकशरीरवाळा थोडा छे अने बाकीना जीवोने ते आहारकशरीर संभवतुं नथी. [ ‘तेयग '- इत्यादि. ] जम औधिक कथा छे तेवी रीते तेजस अने कार्मण शरीरने आश्री जीवादि कहेवा, अने तेमां ते अधिक जीवो ज सादेशोज का कारण के जादिशरीरनो संयोग अनादि छे, अने नारकादि तो भांगावाडा हेवा तथा एडियोमा श्रीजो भांगो कहबो अने आ सशरीरादिदंडको मां सिद्ध पद न कहे. [' असुरीर - इत्यादि. ] सप्रदेशत्वादिपणे कहेवाने योग्य अशरीर जीवा. दमां अशरीर. जीवपदां अने सिद्धांत जिसंगी कवी, कारण के, जीव अने विद्ध सिवाय बीजें खळे अशरीरसंगी 'आहारती इत्यादि ] ने अहिं जीवदमां तथा पृथिव्यादिपदोमां आहारादिपर्याप्तिने पामेला धमा जीवो के तथा तेनी (आहारादिनी) अपने पी आहारादिपर्यापिडे पर्यासिभावने पामता एवज जीओ टेपदेशो अने अप्रदेशो ए प्रमाण एक ज मांगो जामको अने माफीना योगांत गाया. [भासा-रुण इत्यादि] भाषानी अने मननी जे पाक्षिकदेवाय जो के भाषानी अने मननी, एम बे पर्यातिओ छे तो पण बहुधुतोने संमत कोइ पण कारणने लइने ते बनने अहीं एक जेवी विवक्षेली छे अर्थात् ते प-बहु प्तिओने अहीं एकरूप गणेली छे, ते भाषा - मननी पर्याहिंबडे पर्याप्त जीवो जेम संज्ञी जीवो कह्या तेम सप्रदेशादिपणे कहेवा, बधा पदोमां त्रण भंग
आहारादेप
,
या अने अहिं पंचेंद्रिय पोज आखपतनुं खरूप आ प्रमाणे समजवानुं हे आत्मा ने करण द्वारा मुक्तखाखरुप आहारनो खट अने रस का समर्थ वाय छे से करनी विपत्ति से आहारपछि कदेवाय करण अने शक्ति, ए बने
,
पर्याय शब्दो के एटले अजीज करण द्वारा औदारिकशरीरने किशरीरने अने आहारशरीरने योग्य द्रच्यो ( अणुओं ) ग्रहण करी ते गृहीत द्रव्योने औदारिकादि भावे परिणमावे छे ते करणनी निष्पत्ति ते शरीरपर्याप्ति, तथा आत्मा जे करण द्वारा स्पर्शादि इंद्रियोने योग्य द्रव्यो ग्रहण करीने पोताना विषयोने जाणवा समर्थ थाय छे ते करणानी निष्पत्ति ते इंद्रियपर्याप्ति, तथा, जे करण द्वारा आनप्राण योग्य द्रव्योने अवलंबी, अबलंबी ते वने आना महार वाढवा समर्थ वाय ते करपनी नियति ते आनापति तथा जे करण द्वारा सलादिभाषाने योग्य ने अपनी बीते इत्यो चार प्रकारनी भाषामा परिणमायी भाषा सिर्जनमा समर्थाय ते करणनीति ते भाषापति तथा जे करणद्वारा पार प्रकारमा गनने योग्य द्रव्योग करी आत्मा ममन करयामां समर्थ थाय ते करमनी निष्पत्ति ते मनःपर्याप्ति. [ आहारअपजती अहिं जीवपदमां अने पृथिव्यादिपदोमां ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो कहेवो, कारण के, आहारपर्याप्ति विनाना विग्रहगतिवाळा घणा जीवो निरंतर मळे छे अने बाकीना जीवोमां पूर्वोक्त ते ज छ भांगा कहेवा, कारण के बाकीनाओमां आहारपर्याप्ति विनाना थोडा जीवो होय छे. [' सरीर अपज्जतीए ' इत्यादि.] अहिं जीवोमां अने एकेंद्रियोमां एक ज भांगो कहवो अने बीजे तो एटले जीव अने एकेंद्रिय सिवायना
इत्याद] आहाराविनी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२९७
बेडसिरीज मेरे जने एकेद्रिय पदोनने शरीरो अपन
,
www.jainelibrary.org/