Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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२. प्र०--से केणद्वेणं ?
२. उ० – गोगमा । पुढपिकाए णं अश्येगइए सुभे देसं पकासेइ, अत्थेगइए देसं नो प्रकासेइ-से तेणद्वेणं.
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
२. २० तमुका मंते कई समुट्टिए, कहिँ समिि
२. उ०- गोगमा जंबूदीवस दीपरस बहिया तिथिमसंसेले दीप-समुद्दे बीईपत्ता, अरुणवरस्स दविसा बाहिरि लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एगपएसियाए सेढीए - एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए. सत्तरस-एक्कवीसे जोयणसए उड्डुं उप्पइत्ता तो पच्छा तिरियं पविश्यरमाणे, पविश्वरमाणे सोहम्मी-साण सर्णकुमार-माहिंदे चत्तारि विकप्पे आवरित्ता, णं उडूंपि य णं मलोगे कप्पे रिट्ठनिमाणपत्थढं संपते-एरथ गं समुकार ण सन्निविट्ठिए.
४. प्र० - तमुक्काए णं भंते ! किंसंठिए पत्ते ?
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४. उ०- गोवमा आहे मलगमूलठिए उड पंजरगटिएप
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५. प्र० तमुका मंते केलिये विक्संमेणं, केवलिय परिक्खवेणं पत्ते ?
५. उ०- गोयमा ! दुविहे पत्ते, तं जहा :- संखेज्ज वित्थडे य, असंखेज्जबित्थडे य; तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेज्जाई जोयणसहस्साइं विक्खभेणं, असंखेज्जाई जोयणतहस्साइं परिक्वेयेणं पचते; तस्म नं से से अलवर से मे असं ज्जाई जोयणसहस्साइं विक्खंमेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्लेवेणं पचते.
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६. प्र० -- तमुक्काए णं भंते ! केमहालए पत्ते !
६. उ० – गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सव्यध्यंतराए जा परिक्लेवेन पचते देवे में महिदीए, पत्रत्ते.
२. प्र० - ( भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ?
२. ३० - हे गौतम! केटोक पृथिवीकाय एयो शुभ छे, देश - भागने प्रकाशित करे छे अने केटलोक पृथिवीका वोछे, जे देशने प्रकाशित नवी करतो, ते हेतुथी पूर्वोक्त प्रमाणे कहेवाय.
शतक ६.-- उदेश ५.
३. प्र०-हे भगवन् ! शरू छे भने क्यों संनिष्ठित छेप सेनो अंत छे!
काय क्यों समुत्थित तमस्काय छे- क्यांची
२. उ०- हे गौतम! अंबुद्वीप सामना ईपनी बहार तिरछे असंल्प द्वीप समुोने उद्देश्य पछी अरुणवर द्वीप आवे छे ते द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अंतथी अरुणोदय समुद्रने ४२ हजार योजन अवगाहीए त्यारे उपरेतन जलांत आत्रे छे, ते उपरितन जलांतथी एक प्रदेशनी श्रेणीए - अहीं तमस्काय समुत्थित छे, ते त्यांची समुत्थित थइ १७२१ योजन उंचो जई यांची पाछो तिरछो-विस्तार पामतो विस्तार पामतो सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार अने महेंद्र ए चारे कल्पोने पण आच्छादीने उंचे पण ब्रोक कल्पमा रिष्टविमानना- पाथडा सुघी संप्राप्त - पहोंच्यो के अने त्यां तमस्काय संनिविष्ट छे.
४. प्र०-हे भगवन् । संमस्काय किंसंस्थित छे एटले तमस्कायनुं संस्थान आकार-केतुं छे.
४. उ०—हे गौतम! समस्ताय, नीचे, मल्लकमूल- कोटी आना नीचेना भागना आकारमा पो छे अने उपर कुकडाना पांज राना वा अकारवाळले.
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५. प्र०-हे भगवन् ! तमस्काय विष्कंभवडे केटोको छे अने परिक्षेपवडे केटो को छे ?
५. उ० - हे गौतम! तमस्का । बे प्रकारनो को छे: एक तो संख्प्रेय विस्तृत अने बीजो असंख्येय विस्तृत तेमां जे ते संख्येय विस्तृत छे ते विष्कंभ वडे संोय योजन सहस्र को छे अने परिपपडे असंख्येय योजन सहस्र को छे अने तेमजे ते असंख्येय विस्तृत छे ते असंख्येय योजन सहस्र विष्कंभवडे को छे अने असंख्येय योजन सहस्र परिक्षेप बडे को छे. ६. प्र० - हे भगवन् ! तमस्काय केटलो मोटो कह्यो छे ? ६. उ०- हे गौतम! सर्वद्वीप अने समुद्रोनी सर्वाभ्यंतर आ जंबुद्वीप नामनो द्वीप पायत् परिक्षेप बढेको छ कोइ मोटी छे
१. मूलच्छायाः -- तत् केनाऽर्थेन ? गौतम ! पृथिवीका थोऽस्त्येककः शुभः देशं प्रकाशयति, अस्येकको देश को प्रकाशयति तत् तेनाऽर्थेन. समस्कायो भगवन्तः सरितः त्रनिष्ठितः गीराम जम्बूदीप निगवान् समुद्रन् व्यस्थि द्वीपसा बाझा वैदिकमाद अमोद समुद्रास्वारिंशद् योजनानि अवापरतात एकप्रदेशिका - समा समुत्थितः सदतिया कम्पख ततः पश्चात् विप्ररिन्दानकुमार
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कल्पान् आवृत्य ऊर्ध्वमपि च ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टविमानप्रस्तटं संप्राप्तः अत्र तमस्कायः संनिविष्टः तमस्कायो भगवन् । किंसंस्थितः प्रज्ञप्तः ! गौतम 1 अभी मा उपप्रशमस्कायो भगवन् किन् वरित गीतमा प्र यथारा अवश्येव विस्तृत तत्र यः स वेदवितुनः संवेधानिकेोजनाविष्टम्भेग अपन भोग परिक्षेत्र ः सोऽविस्तृत सोऽगनियोजनानि विष्ठम्भेग, स्पानि योजना परिक्षेपेच अतः समस्कायो भगवन् हिमालय सर्वद्वीपसमुद्रसम्यन्तारक यावत्परिक्षेव प्रदतः देवो मर्धिका - अनु०
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