Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शेतक६-उद्देश.
अपर्याप्त.
जीवोमांसो पग सांगा पड़ेगा, कारण के, शरीरादिभी अपर्वात जीवो डालनी अपेक्षाए हमेशा जसो म हे अने अप्रदेशो कदाचित् एकादि भाषा अने मनना मळे छे, नैरयिक देव अने मनुष्योमा छ भांगा ज जाणवा. [' भासा इत्यादि. ] भाषानी अने मनती अपर्याप्तिथी अपर्याप्त ते जीवो कहेवाय के, जे जीवोने जन्मथी भाषानी अने मननी योग्यता होय तो पण तेनी असिद्ध होय, अने तेवा तो पंचेंद्रियो ज छे, जो वळी, जेओने भाषापर्यासिनो अने मनःपर्याप्तिनो मात्र अभाव होय तेओ भाषानी अने मननी अपर्यातिथी अपति कहलाता होय तो तेमां एकेंद्रिय पण होवा जोइर अ े जो मूळकार एकेंद्रियो होय तो जीव दमां श्रीजो ज भांगो थवो जोइए, पण तेम नथी, कारण के मूळकार कहे छे के, ['जीवाइओ तियमगो 'ति ] एटले जीवादिक ऋण मांगा कद्देवा, अर्थात् तात्पर्य ए के, जे जीवोने जन्म्थी भाषानी अने मननी योग्य होय पण तेनी असिद्धि होय ते ज जीवो अहीं भाषानी अने मनी अपायो भने पद्रियते तेनी भाषानी अने ममी) अपने पा नैरयिक- देव- मनुष्य घणा मळे छे अने तेनी अपर्याप्तिने पामता एकादि मळे छे माटे तेमां पूर्वीक जत्रण भांगा जाणवा. [' ने इ-देव- मणुएस छन्भंग ' त्ति ] नैरयिकादिमां मनअपर्याप्तकोनी अल्पतरता होवाथी तेओ एकादि सप्रदेशो अने अपदेशो मळे छे मारे तेमां ते ज छ भांगा जाणवा. आ पर्याहिना अने संनाया अपना दंडको सिद्धपद न कहे, कारण केोभव हे पूड द्वारोनी संग्राम कहे अर्थात् आ प्रकरणां आपेला सप्रदेश विषयोनी यादीने कामां जगावे छे. [' सपएसा ' इत्यादि. 1 [' सपएस ति'] आ प्रकरणमां कालनी अपेक्षाए अने एकत्व तथा बहुत्वने आश्रीने आहारक भव्य अने जीवोनी सप्रदेशता अने अप्रदेशता कही छे तथा [' आहारगति ] ते ज रीते आहारक अने अनाहारक कला छे, भव्यो, अभव्यो अने उभय संक्षी वगेरे, निषेधवाळा एटले भय नहि तेम अभव्य नहि एवा जीवो पण ते ज प्रकारे जगाया छे, संज्ञी, असंज्ञी अने बन्ने निषेधवाळा एटले संज्ञी नहि तेम लेश्या असंज्ञी नहि एवा जीवोने पण ए रीते ज समजाव्या छे, [ 'लेस ' त्ति ] लेश्या बाळा-कृष्णा दिलेदयाळा ६ अने अलेश्या - लेश्या विनाना जीवोने दृष्टि पण पूर्वी पेठे खाडे, [ दिडि सि ] हग् एटले दृष्टि से सम्म् बगेरेने ते एटले सम्या वगेरे पण पूर्व प्रमाणे का पछे, [संजय चि] संगतो असंवतो, संपतात अनेटले संपत नहि असंपत अने संवतासंवत नहि एकाने प कपाय पूर्व प्रकारे प्ररूप्या छे. [ ' कसाइ त्ति ] कयवाळा-क्रोध दिवाळा ४ अने अकषाय-कवाय रहित जीवोने पण कालादेशनी अपेक्षाए विचायी [] ज्ञानवाला आमिनिविकाविज्ञान भने अशानामाळा जीवन पण ते व रीते पाया [ओगति] योगाला मन वगेरे बोगवाय अने योगओने पण पूर्वी रीते सूचया [] साकार ने अकर वेद उपयोगपाळा २ जीवोने पण एज ते संध्या के [वंदे वि] यात्री अने वेद विनाना जी ने पूर्व जा शरीर पर्याप्त छे, [' ससरीर 'त्ति ] शरीरवाळा-औदारिकादि शरीरवाळा ५ तथा शरीर विनाना जीवोने अने छेवट [ 'पजत ' त्ति ] आहार वगेरेनी पर्याप्ति. बाळा ५ अने तेनी अपर्याप्तिबाळा ५ जीवोने पण कालादेशनी अपेक्षाए पूर्वनी ज पेठे समजाच्या छे.
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प्रत्याख्यान अने आयुष्य.
६. प्र० -- जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी पदखाणापचखाणी
६. उ० गोयमा ! जीवा पचपखाणी वि, अपाणी वि, पञ्चक्खाणापचक्खाणी वि.
७. प्र० - सव्वजीवाणं एवं पुण्छा ?
७. उ० – गोषमा ! मेरइया अपयखाणी जाब-पढ रिर्दिया, सेसा दो पहिया पंचिदियतिरिक्स जोगिया नो पञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी वि, पञ्चक्खाणापचक्खाणी वि; मणूसा तिमि पि सेसा जहानेरड्या.
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८. प्र० - जीवा णं भते । किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्चपाणं जाणंति, पचपखाणापचराणं जाणति है
-
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६. प्र०-हे भगवन् जीवो प्रत्य एवनी - रूपानी छे ! के प्रयापानावानी छे!
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६. उ० -- हे गौतम! जीवो प्रत्याख्यानी पग छे, अप्रत्याख्यानी पण छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी पण छे.
७. प्र० प्रमाणे बघा जीयो गाठे प्रश्न करो ! ७. ४० हे गौतम! नैरविको अपव्याख्यानी छे एप्रमाणे यावत् चरिद्रय सुधीना जीनो अप्रत्यायनी कहेगा अर्थात् तेओने माटे बाकीना बे-प्रत्याख्यानी अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी- भांग प्रतिपना पंचेंद्रियवियोनिको पानी नथी पण अ रूपानी छे भने प्रत्याख्यानाप्रापानी छे अने मनुष्योने प्रणे भांगा होय छे तथा बाकीना जीवो, जेम नैरयिको कहाा तेम कहवा.
८. प्र० - हे भगवन्! शुं जीवो प्रत्याख्यान जाने छे ! अप्रत्याख्यानने जाणे छे ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने जाणे छे !
१. मूलच्छायाः -- जीवा भगवन् ! कि प्रत्याख्यानिनः, अप्रत्याख्यानिनः, प्रत्याख्यानाऽप्रत्याख्यानिनः । गोतम ! जीवाः प्रत्याख्यानिनोऽपि, अप्रत्याख्यानिनोऽपि प्रत्याख्यानाडाल्याख्यानिनोऽपि सर्वजीवानाम् एवं पृच्छा ! गौतम | नैरयिकाः अप्रत्याख्यानिनः, यावत् चतुरिन्द्रियाः शेषो द्वौ प्रतिषेधः विश्वादयानिनोऽपि प्रानपि मनुष्य
वा
किं प्रजानन्दिया प्रायन्ति प्रानायानं जागति
J
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