Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
View full book text
________________
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहै
शतक ५.-उद्देशक ४. चरम-निर्जरा. निर्जरा. ['पणीय' ति ] प्रणीत-शुभपणे प्रकृष्ट. [घारेज' ति] धारण करे-व्यापृत करे-[' एवं अणंतर-' इत्यादि] आनो आ अर्ध.छे, मायी अमायी. जेम वैमानिक देवो बे प्रकारना कडा छ, मायिमिथ्यादृष्टिओने ज्ञाननो निषेध छे--तेओ जाणता नथी. ए प्रमाणे अमायिसम्यग्दृष्टिओ, अनन्तरो
पपन्नक अने परंपरोपपन्नक एम बे प्रकारे कहेवा. तेमां अनन्तरोपपन्नको नथी जाणता, तथा पर्याप्त अने अपर्याप्त एम बे प्रकारे परंपरोपपन्नकने
जाणवा, अने तेमां अपर्याप्तो नथी जाणता, तथा पर्याप्तो, उपयुक्त अने अनुपयुक्त एम बे प्रकारे कहेवा अने तेमा अनुपयुक्तो नथी जाणता."बीजी बीजी वाचना. वाचनामां तो आ अर्थवाळु मूळसूत्र, मूळमां साक्षात् ज देखाय छे. [ ' आलावं व ' ति] एक वार बोलवू ए आलाप, [ ' संलावं व ' त्ति ] आलाप-संलाप.. वारंवार मानसिक बोलवू ते ज संलाप. [ 'लद्धाओ' त्ति ] तेना अवधिना विषयपणाने पामेली-तना अवधिज्ञानवडे जणाय तेवी. [ पत्ताओ'
त्ति ] तेना अवधिज्ञानबडे सामान्यरूपे जाणेली. [ 'अभिसमण्णागयाओ' त्ति ] विशेषे करी परिछिन्न-ज्ञात-थयेली. कारण के, तेओना अवधि
ज्ञाननो विषय संभिन्नलोकनाडी छे, अने जे अवधिज्ञान लोकनाडीनुं ग्रहण करनारं होय छे ते मनोवर्गणानुं ग्राहक होय ज छे. केमके, जे अवधिअवधिशान. ज्ञाननो विषय लोकनो संख्येय भाग होय ते अवधिज्ञान मनोद्रव्य, ग्राहक-जाणनारुं-पण होय छे. तो वळी ज अवधिज्ञाननो विषय संभिन्न
समस्त-लोकनाडी छे ते अवधिज्ञान मनोद्रव्यनुं जाणनाएं होय एमां तो कहेवू ज शुं ? बळी जे अवधिज्ञाननो विषय लोकनो संख्यय भाग छ ते
अवधिज्ञान मनोद्रव्यन जाणनारुं छे, ए प्रमाणे इष्ट पण छे. कधु छ जे, “ लोकना अने पल्योपमना संख्येय भागने जाणनारो अवधि मनोअनुत्तर सुर. द्रव्यनो ग्राहक-जाणनार-होय छ, एम जाणवू." अनुत्तरसुरनो अधिकार चालु होवाथी आ-[ 'अणुत्तरा-' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [' उदिण्ण
मोह ' ति] जेओने वेद मोहनीय उत्कट छ, [' उवसंतमोह ' ति ] कोइ रीते पण मैथुननो सद्भाव न होवाथी तओने बदमोहनीय अनुत्कट
छे, माटे तेओ उपशमेल मोहवाळा छे पण तेओने उपशम श्रेणी न होवाथी तेओ सर्वथा उपशांतमोह नथी. ['नो खीगमोह ' ति] क्षपक वली अने इंद्रियो.
श्रेणीनो अभाव होवाथी तेओ क्षीणमोह नथी. आ सूत्रथी आगळना सूत्रमा केवलिनो अधिकार होवाथी आ-[ 'केवली' इत्यादि ] सूत्र कहे छे, [आयाणेहिं' ति जेओ बडे पदार्थy आदान-ग्रहण-थाय ते आदान-इंद्रियो, तेओवडे, पोते केवली होवाथी जाणता नथी. [ अस्सिं समयसि' त्ति ] आ वर्तमान-चालु-समयमां [ 'ओगाहित्ता णं' ति ] अवगाहीने-आक्रमीने [ 'सेयकालंसि वि' ति] भविष्यत्कालमां पण. [वीरियस
जोगसद्दव्वयाए 'त्ति ] वीर्यातरायना नाशथी उत्पन्न थएली शक्ति ते वीर्य, जमां वीर्य मुख्य छ एबुं मानस वगेरे व्यापारथी युक्त विद्यमान जे ही सयोग सध्य, जीव द्रव्य ते 'वीर्यसयोग सद्-द्रव्य ' कहेवाय, वीर्यनो सद्भाव होय तो पण योगो-व्यापारो-विना चलन न थइ शके माटे 'सयोग' शब्द वडे
सद्-द्रव्यने विशेषित कर्यु छ अने द्रव्यतुं जे सत् ' ए विशेषग छे ते द्रव्यनी सत्ताना अवधारण माटे छे, अथवा वीर्यवान, मानसादि योगयुक्त
आत्मरूप द्रव्य ते वीर्य सयोग खद्रव्य ' कहेवाय, अथवा वीर्यप्रधान योगवाळो एवो अने मन वगेरेनी वर्गणायुक्त ते 'वीर्यसयोग सव्य '. ___ चर-उपकरण. कहवाय, तेपणुं ते 'वीर्यसयोगसद्रव्यता' अने तद्रूप हेतु वडे. ['चलाई ' ति] अस्थिर. [ ' उवगरणाई 'ति] अंगो. ['चलोवगरणहयाए य' ति] अस्थिर अंग स्वरूप जे अर्थ तेपण अर्थात् अंगो अस्थिर होवाथी.
चौदपूर्वी. ३८. प्र.--पभू णं. भंते ! चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, ३८. प्र०—हे भगवन् ! चौदपूर्वने जाणनार-श्रुत केवली पडाओ पडसहस्सं, कडाओं कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्स, मनुष्य, एक घडामाथी हजार घडाने, एक पटमाथी हजार पटने, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं, अभिनिव्वदे॒त्ता उवदं- एक सादरीमांथी हजार सादरीओने, एक रथमांथी हजार रथने, सेत्तए?
एक छत्रमाथी हजार छत्रने अने एक दंडमांथी हजार दंडने करी
देखाडवा समर्थ छे ? ३८. उ०-हंता, पभू.
३८. उ०--हा, समर्थ छे. ३९. प्र०-से केणद्वेणं पभू चउद्दसपुव्वी, जाव-उवदसेतुए? ३९. प्र०—ते केवी रीते, चौदपूर्वी यावत्-देखाडवा समर्थ छे।
३९. उं0--गोयमा ! चउद्दसव्विस्स णं अणंताई दव्वाइं ३९. उ०-हे गौतम : चौदपूर्विए, उत्करिका भेदवडे उक्करियाभएणं भिज्जमाणाई, लद्धाइं, पत्ताइं, अभिसमण्णागयाई भेदातां अनंत द्रव्यो ग्रहण योग्य कयों छे, ग्रयां छे अने ते द्रव्योने भवंति, से तेणद्वेणं जाव-उवदंसेत्तए.
घटादिरूपे परिणमायया पण आरंभ्यां छे, माटे ते हेतुथी यावत्
देखाडवा समर्थ छे. --सेवं भते । सेवं मंते ! ति.
-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे ले (एम कही-यावत् विहरे छे.)
भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये चउत्थो उसो सम्मत्तो.
१. 'च' शब्दनो । वळी' अर्थ छ:-श्रीअभय.
१. मूलच्छाया:-प्रभुः भगवन् । चतुर्दशपूर्वी घटाद् घटसहस्रम्, पटात् पटसहस्रम् , कटात् कठसहस्रम्, रथात् रथसहस्रम्, छत्रात् छत्रसहस्रम् , दण्डाद् दण्डसहस्रम् अभिनिर्वयं, उपदर्शयितुम् ? हन्त, प्रभुः. तत् केमार्थेन प्रभुः चतुर्दशपूर्ण यावत्-उपदर्शयितुम् ! गौतम ! चतुर्दशपूर्विणः अनन्तानि द्रव्याणि उत्करिकामेदेन गिद्यगानानि लब्भानि, प्राणागि, अगिरागन्यागवानि भवन्ति, तत् तेनार्थेन गाय-उपदर्श गितुग, तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! हतिः-अनु०
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org
![](https://s3.us-east-2.wasabisys.com/jainqq-hq/b0018d8a8510afe9c89652e8f797b2252a955f6b5b2c77cc8dbbea81613656dd.jpg)
Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358