Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 280
________________ २७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६. उद्देशक ३. 6 त्ति यथा वस्त्रे पुद्गलाः प्रयोगतो विस्रसातश्च चीयन्ते, किम् एवं जीवानामपि वाच्यम् ? ' सादीए ' त्ति वस्त्रस्य सादिः पुद्गलचयः, एवं किं जीवानामपि असी इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं च वाच्यम्, कम्मदिति कर्मस्थितियांच्या हरियत्ति किं स्त्री, पुरुषादिर्वा धर्मबध्नाति ! इति बाध्यम्, संवयति किं संयतादिः सम्मदिट्टि ' ति किं सम्यग्दृत्यादि एवं संज्ञी भव्यः दर्शनी, पर्याप्तकः, माषकः, परीतः, ज्ञानी, योगी, उपयोगी, आहारकः, सूक्ष्मः, चरमः; 'बंधे य' त्ति एतान् आश्रित्य बन्धो वाच्यः. 'अप्प' ति एषामेत्र स्त्रीप्रभृतीनां कर्मबन्धकानां परस्परेण अल्प - बहुता वाच्या इति , " बहु बहुकर्म. १. आगळना उद्देशकमा आहारने अपेक्षीने पुद्गलोनो विचार कर्यो छे अने अहीं तो बंधा दिने अपेक्षीने पुद्गलो चितवानां छे ए प्रमाणेना संबंधवाळा आ त्रीजा उद्देशकमां, शरुआतमां बे अर्थसंग्रह गाथा छेः [' बहुकम्म ' इत्यादि. ] तेमां [' बहुकम्म 'त्ति ] एटले मोटा कर्मवारे पुल धाय, इत्यादि कहे [वरचे पोला प्रयोगसा बीसमा यति ] जैन यसमां प्रयोगद्वारा या सामाजिक रीते सादि. पुद्गलो एकठां थाय छे, शुं एवी रीते जीवोने पण थाय छे ? ए कहेवुं, [' सादीए ' त्ति ] जेम वस्त्रमां एकटां थतां पुद्गलो सादि-आदिवाळां ब.मसति छे, ए प्रमाणे शुं जीवोने पण पुद्गलसंग्रह आदिवा छे ! इत्यादि प्रश्न असे उत्तर कहेव, [' कम्पटिइ ' त्ति ] कर्मनी स्थिति कहेवी, स्त्री, संयत, सम्य [ष] श्री पुरुष पगेरे कर्मबंध करे इत्यादि कहे ['संजय' चि] संपत रे [सम्मदिद्दि सि] शं दृष्टि को गन्य सम्पति बगेरे ए प्रमाणे संशी भव्य दर्शनी, पर्याप्त, भाषक, परिस, ज्ञानी, योगी, ( योगी एटले शरीरादिकृत योगी) चिंगेरे, उपयोगी, आहारक, सूक्ष्म, चरम ए बधाने आश्रीने ['बंधे य' त्ति ] बंध कहेबो, [' अप्पबहुं ' ति ] ए बधा स्त्री वगेरे कर्मबंधकोनुं परस्पर अल्पबहुत्व. अल्पबहुत्व कहेवुं. , वना उदाहरण साधे महाकर्म अने अल्पकर्म. , १. ५० से पूर्ण मते महाकम्मरस, महाकिरियरस, १. प्र० - हे भगवन् ! ते नक्की छे के, महाकर्मकाळाने, महारावरस, महादेवणास राज्यको पोग्गला पांति सव्वओ महाक्रियावाळाने महाआश्रमवाळाने अने महावेदनावाळाने सर्वधी फैलाओ योग्गला उपभिति गया समयं सर्व दिशाओधी सर्व प्रकारे कोनो बंध थाय सर्वधी पुलोनो पति रावा समिति सया समियं चयधाय सर्वधी द्रोनो उपचय धाप हमेशा निरंतर पोग्गलां चिज्जंति, ? ? पोग्गला उवचिज्जति; सया समियं च णं तस्स आया दूरूवत्ताए, पुद्गलोनो बंध धाय, हमेशा निरंतर पुद्गलोनो चय थाय के दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ता, दूरसत्ताए, दुफासत्ताए; अणिद्वत्ताए, हमेशा निरंतर पुद्रटोनो उपचय थाय ? अने तेनो आत्मा, हमेशा अत-अपिय असुभ अम-अमणामनाए, अणिच्छिवताए, अ- निरंतर दूरूपपणे, दुर्वर्णपणे दुर्गंधपणे, दूरसपणे, दुःशपणे, मिशियाए, अचाए-नो उदुताए, दुक्खता मो सुताए अनिष्टपणे, अकांतपणे, अमनोज्ञपणे अमनामरणे- मनधी संमारी ए-नो परिणमति पण न शकाय ए स्थितिए, अनीप्सितपणे- प्राप्त करवाने अनिच्छितपणे, अभिध्यितपणे जे स्थितिने प्राप्त करवानो लोभ पण न थाय ते स्थितिपणे, जघन्यपणे, अनूर्ध्वपणे, दुःखपणे अने अमुखपणे वारंवार परिणमे छे ! १.. उ० - हा, गौतम ! महाकर्मवाळा माटे ते ज प्रमाणे छे. २. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? --- २. उ० - हे गौतम! जेम कोइ अहत- अक्षत-अपरिभुक्तनहि वापरे भधोठं, चीन-पोतुं यापरीने पण पोर भने शाळ उपरथी हमणां सार्नु ज उतरेखं यख होय, ते वस्त्र ज्यारे कमे कमे पराशमां आगे सारे तेने सर्व बाजुएथी पुलो बंधा से लागे छे, सर्व बाजुएथी पुद्गलोनो वय थाय छे यावत् कालान्तरे ते वस्त्र, मसोता जेतुं मेलं अने दुर्गंधी तरीके परिण में छे, ते हेतुथी महाकर्मवाळाने उपर प्रमाणे छे. Jain Education International १. उ०- हँसा, गोगमा ! महाकम्मस्स तं प २. प्र० -- से केणद्वेणं ? २. ३० गोयमा से जहा नामए परथस्त महयस्स वा धोयस्य तंतुयवस्था आणुपुम्मीए परिभुजमाणसा सज्यओ पोग्लायति सम्पओ पोग्गठा चिवंति, जाव परिणमंति; - 1 सेते द्वेणं. १. भगवम् महाकर्मणः महाडियस्य माधव महावेदनस्य सः पुच्यते सतः साधीयन्ते सर्वतः पुला उपचीयन्ते; सदा समितं पुत्रलाः बध्यन्ते, सदा समितं पुलाचीयन्ते, सदा समितं पुद्गला उपचीयन्तेः सदा समितं च तस्याऽऽत्मा दूरूपतया, दुर्वर्णतया, दुर्गन्धतया, दूरसतया, दुस्स्पर्शतया, अनिष्टतया, अकान्तां -ऽप्रिया - शुभां - मनोज्ञा-मनोऽमतया, अंगीप्सिततमा, अभिभिपततया, अधस्तया नो ऊर्ध्वतया, दुःखतया नो सुखतया भूयो भूयः परिणमन्ति ? इन्त, गौतम ! महाकर्मणस्तचैव तत् केनाऽर्थेन ? गौतम | तद् यथा नाम वस्त्रस्य अहतस्य माता परिभुज्यमानस्य सर्वतः पुखाः यप्यन्ते सर्वतः परिणमन्ति तत् तेनान-अनु वा 1 · - " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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