Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 283
________________ فریام शतक ६.-उद्देशक ई. भगवत्सुधर्मस्मामिप्रणीत भगवतीसूत्र. वि', पीससा वि-तहा णं जीवाणं कम्मोवचए कि पयोगसा, रीते पुद्गलोनो उपचय थाय छे तेम जीवोने जे कर्मभुगलोनो उपचय चीससा ? थाय छे ते शु प्रयोगथी अने स्वाभाविक रीते, ए बने कारणथी थाय छे! ६. 30--गोयमा ! पयोगसा, नो वीससा. ६.उ.--हे गौतम ! जीवोने जे कर्मनो उपचय थाय छे ते प्रयोगथी थाय छे पण स्वाभाविक रीते थतो नथी, ७. प्र०—से केणटेणं ? ____७. प्र०--(हे भगवन् ) ते शा हेतुथीं ! ७. उ०-गोयमा ! जीवाणं तिविहे पयोगे पन्नत्ते, तं ७. उ.-- हे गौतम ! जीवोने त्रण प्रकारना प्रयोगो कथा जहा:-मणप्पयोगे, यइप्पयोगे, कायप्पयोगे; इचेएणं तिविहेणं छे, ते जेमके, मनप्रयोग, वचनप्रयोग, अने कायप्रयोग, ए त्रण पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचये पयोगसा, नो वाससा; एवं सब्यसि प्रकारमा प्रयोगवडे जीवोने कर्मन्ने उपचय थाय छे, माटे जीवोने पंचिदियाणं तिबिहे पयोगे भाणियव्वेपुढवीकाइयाणं एगविहे गं कर्मनो उपचा प्रयोगथी थाय छे पण स्वभाविक रीते थतो नथी; पओगेणं, एवं जाव-वणस्सइकाइयाणं. विगदियाणं दुविहे ए प्रमाणे बधा पंचेंदियोने त्रण प्रकारनो प्रयोग कहेवो, पृथिवीकापयोगे पन्नते, तं जहा:-वइपयोगे, कायपयोगे य; इचएणं दी- पिकोने एक प्रकारनो प्रयोग कहेवो, ए प्रमाणे यावत-वनस्पतिकाहेणं पयोगेणं व.म्मोवचए पयोगसा, नो वीससा, से तेणद्वेणं यिको सुधी जाणवू, विकलेंद्रिय जीवोने बे.प्रकारनो प्रयोग कयो के. जाव-नो वीससा. एवं जस्स जो पओगो, जाव-वेमाणियाणं. ते जेमके, बचनप्रयोग अने कायप्रयोग, ए वे प्रकारना प्रयोगवडे तेओने कर्मनो उपचय थाय छे माटे तेओने प्रयोगथी कर्मोपचय थाय छे पण स्वाभाविक रीते कर्मोपचय थतो नथी, ते हेतुथी एम कडं के, यावत् स्वाभाविक रीते कर्मोपचप थतो नथी, ए प्रमाणे जे जीवने जे प्रयोग होय ते कहेवो अने ते प्रमाणे यावत्-वैमा.नेक सुधी कहेवू. ८..प्र०-वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचये कि साईए ८. प्र०-हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचयं थयो छे, सपज्जवसिए, सादीए अपज्जवसिए, अणाइए सपज वसिए, अणा- ते शुं सादि सांत छे ? सादि अनंत छ ? अनादि सांत छ के -इए अपज्जवसिए? अनादि अनंत छ ? . . . ८. उ०-गोयमा ! वत्थस्स गं पोग्गलोवचए साइए ८. उ०-हे गौतम ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थयो छे, सपज्जवसिए, नो साइए अपज्जवसिए, नो अणाइए सपज्जवसिए, ते सादि सांत छे पण सादि अपर्यवसित-अनंत-नथी, तेम ज नो अणाइए अपजवसिए. अनादि सांत नथी अने अनादि अनंत नथी. ९. प्र०—जहाणं भंते ! वत्थस्स -पोग्गलोवचए साइए ९. प्र०-हे भगवन् ! जेम वस्त्रनो पुद्गलोपचय सादि संत रुपज्जवसिए, नो साइए अपज्जवसिए, नो अणाइए साजवासिए, छे पण स.दि अनंत, अनादि.सांत के अनादि अनंत नथी ते नो अणाइए अपज्जवसिए; तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा ? जीवोना कर्मोपचय माटे पण पृच्छा-प्रश्न-करवी अर्थात जीवोनो कर्मोपचय पण शुं सादि सांत छे ? सादि अनंत छे, अन्नदि सांत छे के अनादि अनंत छे ! ९.30-गोयमा ! अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए - ९. उ०-हे गौतम ! केटलाक जीवोनो कर्मोपचय सादि साइए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं अणाइए सपज्जवसिए, अत्थे- संत छे, केटलाक जीवोनो - कर्मोपचय अनादि सांत छे अने गइयाणं अणाइए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए केटलाक जीवोनो कोपचय अनादि अनंत छे. पण जीवोनो कर्मोसाइए अपज्जवसिए. पचय सादि अपर्यवसित-अनंत--नथी. १. मूलच्छ.याः-अपि विलसयाऽपि, तथा जीवानां कमोपचयः किं प्रयोगेग, विखसया ! गौतम! प्रयोगेग, न विघ्नसया. तत् केनाऽर्थन ! गौतम ! जीवानां त्रिविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा:-मनःप्रयोगः, वचःप्रयोः, कायप्रयोगः; इत्यनेन त्रिविधेत प्रयोगेग जीवानां कापचयः प्रयोगेग, न विस्रसया; एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां त्रिविधः प्रयोलो भणितव्यः. पृथिवीकायिकानाम् . एकविधेन प्रयोगेग, एवं यावत्-वनस्पतिकायिकानाम्. विकले. न्द्रियाणां द्विविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथाः-वचःप्रयोगः, काय प्रयोगश्च; इत्यनेन द्विविधन प्रयोगेण, कापचयः प्रयोगेण, न विस्त्रसया, तत् तेनाऽर्थेन यावत्-गो विस्रसया, एवं यस्य यः प्रयोगः, यावत्-वैमानिकानाम्. वनस्य भगवन् ! पुगोपचयः किं सादिकः सपर्यवसितः, सादिकोऽपर्यवसितः, अनादिकः सपर्यवसितः, अनादिकोऽपर्यवसितः ? गौतम ! वस्त्रस्य पुद्गले पचयः सादिकः सपर्यवसितः, नो सादिकोऽर्यवसिंतः, नो अनादिकः सपर्यवसितः, नोऽनःदिकोऽपर्यवसितः, यथा भगवन् ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः सादिकः सपर्यवसितः, गो सादिकोऽपर्यवसितः, नोऽनादिकः रापर्यवसितः, नोऽनादिकोऽपर्यवसितः; तथा जीवानां कौपचये पृच्छा ? गैतम ! अरस्येकेषां जीवानां कर्मोपचयः सादिकः सपर्यवसितः, अत्त्येषाम् अनादिकः सपर्यवसितः, अस्त्येकेषाम् अनादिकः अपर्यवसितः, नो चैव जीवानां कर्मोपचयः सादिकोऽपयवसित:--अनु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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