Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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२४६
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ५.-उदेशक १. २. प्र०-से केणद्वेणं ?
२. प्र०-(हे भगवन् ! ) ते क्या हेतुथी? २. उ०-गोयमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य णगरं २. उ०--हे गौतम ! पृथिवी, ए जीयो छे, अजीयो छ माटे रायगिह ति पञ्चइ, जाव-सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाई, ते राजगृह नगर कहेवाय छे यावत्-सचित्त, अचित्त अने मिश्र जीवा इ य, अजीवा इ य नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ, से तेणद्वेणं द्रव्यो पण जीवो छे, अजीयो छे माटे राजगृह नगर कहेवाय छे, तचेव.
ते हेतुथी ते तेम ज छे.
१. इदं किल अर्थजातं गौतमो राजगृहे प्रायः पृष्टवान् , बहुशो भगवतस्तत्र विहाराद्-इति राजगृहादिस्वरूपनिर्णयपरसूत्रप्रपञ्चं नवमोदेशकमाह:-' ते णं' इत्यादि. — जहा एयणुद्देसए' त्ति एजनोदेशकोऽस्यैव पञ्चमशतस्य सप्तमः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वक्तव्यता:-" टंका, कूडा, सेला, सिहरी" इत्यादिका या उक्ता, सा इह भणितव्या इति. अत्रोत्तरम्:--' पुढवी वि नगरं' इत्यादि. पृथिव्यादिसमुदायो राजगृहम् , न पृथिव्यादिसमुदायाद् ऋते ' राजगृह 'शब्दप्रवृत्तिः. 'पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ ' त्ति जीवाऽजीवस्वभावं राजगृहम् इति प्रतीतम् , ततश्च विवक्षिता पृथिवी, सचेतना-ऽचेतनत्वेन जीवाश्च अजीवाश्चेति राजगृहम् इति प्रोच्यते इति.
१. आ बधो अर्थनो समूह भगवंत गौतमे भगवंत महावीरने जाजे भागे राजगृह नगरमा पूठ्यो हतो, कारण के, भगवंत महावीरनो
घणो विहार राजगृहमा थयेलो छ माटे राजगृहादिना स्वरूपना निर्णय परवे आ नवमा उद्देशकमां सूत्रनो प्रपंच-विस्तार-कहे छ:-[ ' ते णं' पंचम शतकनो सप्तम इत्यादि. ] [ ' जहा एयणुद्देसए ' त्ति ] एजनोद्देशक, ए आ पांचौ शतकनो सातमो उद्देश छे, तेमां [ — टंका, कूडा, सेला, सिहरी ' इत्यादि] उद्देश. पंचेंद्रियतिर्यंचोनी वक्तव्यता छे ते वक्तव्यता अहिं कहेवी. अहिं उत्तर आपे छः [ 'पुढवी वि नगरं ' इत्यादि.] पृथिवी बगेरेनो समुदाय ते
राजगृह नगर छे, कारण के, पृथिव्यादिना समुदाय विना राजगृह शब्दनी प्रवृत्ति थती नथी. [ ' पुढवी जीवा इय, अजीवा इ य, नगरं
रायगिहं ति पबुच्चइ ' त्ति ] राजगृह नगर जीवाजीव-स्वभाववालु छे ए प्रतीत छे माटे [ मगधदेशमा वर्तमान — विहार' नी नजीक आवेली राजगृह. अ
अने ' राजगिर ' नामथी ओळखाती जे] अमुक जमीन, पोताना सचेतनपणाने अने अचेतनपणाने लीधे जीव अने अजीवरूप छे, ते ' राजगृह । ए प्रमाणे कहेवाय छे.
अंजवाळु अने अंधारूं. ३. प्र०-से पूर्ण भंते ! दिया उज्जोए, राइं अंधयारे ? ३. प्र०-हे भगवन् ! दिवसे उद्योत अने रात्रिमा अंधकार
होय छे ? ३. उ०-हता, गोयमा ! जाव-अंधयारे.
३. उ०--हा, गौतम! यावत्-अंधकार होय छे. ४. प्र०-से केणद्वेणं ?
४. प्र०-ते क्या हेतुथी ? ४. उ०-गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरि- ४, उ०-हे गौतम! दिवसे सारां पुद्गलो होय छे अने सारो णामे, राई असभा पोग्गला, असभे पोग्गलपरिगामे-से तेणद्वेगं. पुद्गल-परिणाम होय छे. रात्रिमा अशुभ पुद्गलो होय छे अने
अशुभ पुद्गल-परिणाम होय छे-ते हेतुथी एम छे. ५. प्र०–नेरइयाणं भंते ! कि उज्जोए, अंधयारे ? ५-प्र०-हे भगवन् ! शुं नैरयिकोने प्रकाश होय छे के
अंधकार होय छे ! ५. उ०--गोयमा ! नेरइयाणं णो उज्जोए, अंधयारे, ५. उ०--हे गौतम ! नैरयिकोने प्रकाश नथी पर्ण
अंधकार छे. ६.प्र०--से केणवणं?
६. प्र०--ते क्या हेतुथी? ६. उ०-गोयमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला, असुभे ६. उ०--हे गौतम ! नैरयिकोने अशुभ पुद्गल छे. अने पोग्गलपरिणामे-से तेणद्वेणं.
अशुभ-पुद्गल परिणाम छे, ते हेतुथी तेम छे.
१. मूलच्छाया:-तत् केनाऽर्थेन ! गौतम ! पृथिवी जीवाश्च अजीवाश्च नगरं राजगृह मिति प्रोच्यते, यावत्-सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि द्रव्याणि, जीवाश्च, अजीवाश्च नगर राजगृहमिति प्रोच्यते, तत् तेनाऽथेन तचैव. २. तद् नून भगवन् ! दिवा उद्योतः, रात्री अन्धकारः ? हन्त, गौतम । यावत्-अन्धकारः. सत् केनाऽर्थेन ? गौतम | दिवा शुभाः पुद्गलाः, शुभ. पुद्गलपरिणामः, रात्रौ अशुभाः पुद्गलाः, अशुभः पुद्गलपरिणामस्तत् तेनाऽर्थेन, नैरयिकाणां भगवन् । किम् उद्योतः, अन्धकारः ? गौतम ! नैरयिकाणां नो उद्द्योतः, अन्धकार:. तत् केनाऽर्थेन ? गौतम। रयिकाणाम्
अशुभाः पुद्गलाः, अशुभः पुद्गलपरिणम का उद्योतः, अन्धकारः ?
गाभ पुगउपरिणामः, रात्री मा उद्योतः, रात्री अन्धकारः !
१. जूओ भगवती खं० २, पृ० ( २१३-२३०):-अनु०
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