Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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२५२
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह
शतक ५.-उद्देशक ९.
परिणामी लोक संबंध रहित-होय अर्थात् जनो समूल नाश होय माटे कहे छे के, लोक परिणामी छे अर्थात् अनेक बीजा पर्यायाने प्राप्त भएलो के पण तेनो
निरन्वय नाश-समूळ नाश-थयो नथी. हवे आ लोक एवा प्रकारनो छे, ते केवी रीते निश्चित थाय ? तो कहे छे के, [ अजीवेहिं ' ति] सत्ताने धारण करनारां, नाश पामतां अने परिणामने प्राप्त करतां तथा जेओ ( पुद्गलादि ) लोकथी अनन्यभूत-अभिन्न छे, एवा अजीव-पुद्गलादि -पदार्थोथी लोक निश्चित थाय छे, तथा — आ भूतादिधर्मवाळो छ ' एम प्रकर्षे निश्चित थाय छे, माटे ज तेनुं । लोक ' एवं नाम यथार्थ छे, ए
वातने दर्शावता कहे छे के, [जे लोक्कइ, से लोए 'त्ति ] जे प्रमाण द्वारा विलोकी शकाय ते लोक शब्दथी वाच्य होइ शके, ए प्रमाणे लोक श्रीपाजन, स्वरूपने कहेनार पार्श्वजिनना वचनने संभारवा द्वारा भगवंत महावीरे पोतानुं वचन समर्थित कर्यु. [ सपडिक्कमणं ' ति ] प्रथम अने अंतिम
- जिनने प्रतिक्रमण धर्म अवश्य करणीय छे अने बीजा बावीश जिनने तो प्रतिक्रमण धर्म कोइक दिवस कारणे करवा योग्य छे. का छे के,
"प्रथम जिननो अने पश्चिम-छेला-जिननो धर्म प्रतिक्रमणसहित छे अने वचला जिनोने कारण थये प्रतिक्रमण छे."
देवलोको.
१७. प्र०-कइविहा णं भंते ! देवलोगा पन्नता ?
१७. प्र०-हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवलोक कह्या छे ? .१७. उ०-गोयमा ! चउव्विहा देवलोगा पन्नता, तं १७. उ० हे गौतम ! चार प्रकारना देवलोक कह्या , छे जहा:-भवणवासी-वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियभेदेणं:-भवणवासी ते जेम के, १ भवनवासी, २ वानव्यं तर, ३ ज्योतिषिक अने दसबिहा, वाणमंतरा अढविहा, जोतिसिया पंचविहा, वेमाणिया ४ वैमानिक एम चार भेद वडे:-तेमां भवनवासी दस प्रकारना दुविहा.
छे, वानव्यंतरो आठ प्रकारना छे, ज्योतिषिको पांच प्रकारना छे,
अने वैमानिको बे प्रकारना छे. गाहा:
-हवे आ उद्देशकनी संग्रह गाथा कहे छः किमियं रायगिहं ति य उज्जोए अंधयार-समए य, राजगृह ए शुं ? दिवसे उद्द्योत अने रात्रीए अंधकार केम ? पासंतिवासिपुच्छा रातिदिय देवलोगा य.
समय विगेरे काळनी समजण कया जीवोने होय छे अने कया जीवोने नथी होती ? रात्री अने दिवसना प्रमाण विषे श्रीपार्श्वजिनना शिष्योना प्रश्नो अने देवलोकने लगता प्रश्नो-आ उद्देशमा एटला
विषयो आवेला छे. -सेवं भंते 1, सेवं भंते । ति.
-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे.
भगवंत-अनसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये नवमो उद्देसो सम्मत्तो.
५. अनन्तरम् ' देवलोएसु उववन्ना' इत्युक्तम् , अतो देवलोकप्ररूपणसूत्रम्:- कतिविहा ' इत्यादि.
भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पञ्चमशते नवम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्.
५. हमणां [ देवलोएसु उबवन्ना' ] अर्थात् ' देवलोकमां गया ' ए प्रमाणे जणाव्यु छ, तो हवे ते देवलोकोने लगतुं आ सूत्र कहे छः ['कइविहाणं' इत्यादि.]
बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥
१. कतिविधा भगवन् ! देवलोकाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! चतुर्विधा देवलोकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-भवनवासि-वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिक मेदेन:भवनवासिनो दशविधाः, वानव्यन्तरा अष्टविधाः, ज्योतिष्काः पञ्चविधाः, वैमानिका द्विविधाः. गाथा:-किमिदं राजगृहमिति च उद्द्योतोऽन्धकारसमयच पाान्तेवासिंपृच्छा रात्रिंदिवानि देवलोकाश्च. तदेवं भगवन् । तदेवं भगवन् । इतिः-अनु०
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