Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 259
________________ शतक ५. उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. इह च समयक्षेत्राद् बहिवर्तिनां सर्वेषामपि समयाद्यज्ञानम् अवसेयम् , तत्र समयादिकालस्याऽभावेन तद्व्यवहाराऽभावात् . तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः, भवनपति-व्यन्तर ज्योतिष्काश्च यद्यपि केचिद मनुष्यलोके सन्ति तथापि तेऽल्पा:-प्रायस्तदव्यवहारिणश्च, इतरे तु बहव इति तदपेक्षया 'ते न जानन्ति' इत्युच्यते-इति. ३. अहीं हमणां जणावेलां पुद्गलो द्रव्य छे माटे तेनो विचार पूरो थया पछी लागलो ज काल द्रव्यनो विचार करवा माटे काल द्रव्यना विचारनुं सूत्र कहे छे-[' तत्थगयाग ' ति ] त्यां नरकमा रहेलाओ वडे [ ' एवं पन्नायति ' त्ति ] एम जणाय छे-जे आ आगळ कहेवामां नरकमा रहेला, आवनारुं छे ते जणाय छ ? [' समया' इ व ति.] ' समयो ' ए प्रमाण. [ ' इई तेसिं' ति ] ते समयादिनु आ मनुष्य क्षेत्रमा मान-परिमाण-- छे, कारण, के, ते.समयादिनी, सूर्यनी गतिथी अभिव्यक्ति थाय छे अने सूर्यनी गति तो मनुष्य लोकमां जछे पण नग्कादिमां नथी. [ ' इह तेसिं सूर्यनी गति. पाणं' ति ] आ मनुष्य क्षेत्रमा ते समयादिकर्नु प्रमाण-प्रकृष्ट मान-सूक्ष्म मान छे. तेमा मुहूर्त तो मान छे अने तेनी-मुहूर्तनी-अपेक्षाए प्रमाण-मान. सूक्ष्म होवाथी. 'लव प्रमाण छे, ते लवनी अपेक्षाए स्तोक प्रमाण छे अने लव तो मान छे-ए प्रमाणे 'समय' सुधी जाणवू. तेथी [' इहं तेर्सि' इत्यादि.] आ मर्त्यलोकमां मनुष्यो, आगळ कहेवामां आवशे तेवू ते समयादिसंबंधि समयत्वादि स्वरूप जाणे छे, ते जेमके, [ 'समया मनुष्यो. इवा' इत्यादि.] आ स्थळे समय क्षेत्र-मनुष्य-क्षेत्र-थी बहार रहेनारा सर्व जीवोने पण समयादिनुं अज्ञान छे तेम जाणवू, कारण के, मनुष्यक्षेत्रनी बहार समयादि काळ न होवाथी तेनो व्यवहार थतों नथी. तथा, जो के केटलाक पंचेंद्रिय तियचो, भवनपतिओ; व्यतो अने मनुष्य क्षेत्रनी बहार ज्योतिष्को पण मनुष्य लोकमां छे तो पण ते थोडा छे अने काळना अव्यवहारी छे अने बीजा तो घणा छे-ते घणानी अपेक्षार कपुंछे अने म के ते जाणता नथी. पार्थापत्य स्थविरो अने श्रीमहावीर. १५. प्र०—ते' णं काले णं, ते णं समये णं पासावचिजा १५. प्र०- ते काले, ते समये श्रीपार्श्वनाथ भगवंतना थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छन्ति, अपत्य-शिष्य-स्थविर भगवंत, ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते ठिचा, त्यां आवे छे, आवी श्रमण भगवंत महावीरनी अदूरसामते बेसी एवं क्यासी:-से गुणं भंते ! असंखेजे लोए अणंता राइंदिया एम बोल्याः-हे भगवन् ! असंख्य लोकमां अनंत रात्रि-दिवस उप्पजिसु वा, उप्पजति वा, उपजिस्सति वा; निगम्छिसु वा, उत्पन्न थयां ! उत्पन्न थाय छे ? के उत्पन्न थशे ? अने नष्ट थयां ? विगच्छति वा, विगच्छिस्संति वा परित्ता राइंदिया उप्पजिंसु नष्ट थाय छे ? के नष्ट थशे ? के नियत परिमाणवाळा रात्रिदिवसो वा, उप्पजति वा, उप्पजिस्संति वा ! विगच्छिसु वा, विगच्छ- उत्पन्न थयां ! उत्पन्न थाय छे ? के उत्पन्न थशे ? अने नष्ट थयां ? न्ति वा, विगच्छिस्संति वा ! नष्ट थाय छे ? के नष्ट थशे? १५. उ०---हंता, अज्जो ! असंखेजे लोए अणंता राइंदिया, १५. उ०-हा, आर्य! असंख्यलोकमां अनंत रात्रि-दिवसो, तं चेन. वगेरे ते ज कहे. १६. प्र०–से केणद्वेणं जाव-विगछिस्सांति वा ! १६. प्र०-हे भगवन् ! ते क्या हेतुथी यावत्-नष्ट थशे ? १६. उ०-से णूणं भे अज्जो ! पासेणं अरहया पुरिसादा- १६. उ० --हे आर्य ! ते निश्चयपूर्वक छे के, आपना णिएणं सासए लोए बुइए, अणादीए; अगवदग्गे, परित्ते परिवुडे, (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय-पुरुषोमा ग्राह्य-पार्श्व अर्हते लोकने हेट्ठा विच्छिन्ने, मज्झे संखित्ते, उपि विसाले; अहे पलियंकसंठिए, शाश्वत कह्यो छे, तेम ज अनादि, अनवदा-अनंत, परिमित, मज्झे वरवहरविग्गहिए, उपिं उद्धमुइंगाकारसंठिए; तसिं च णं अलोकवडे परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, वच्चे सांकडो, उपर सासयसि लोगंसि अणादियंसि, अणवदग्गंसि, परित्तसि, परिवु- विशाल, नीचे पल्यंकना आकारनो, बच्चे उत्तम वज्रना आकारवाळो डंसि, हेवा विच्छिन्नंसि, मज्झे संखित्तंसि, उणि विसालंसि; अहे अने उपर उंचा-उभा-मृदंगना आकार जेवो लोकने कह्यो छेपलियंकसंठियंसि, मझे वरवहरविग्गहियं स, उप्पि उद्धमुइंगाका- तेवा प्रकारना शाश्वत, अनादि, अनंत, परित्त, परिवृत, नीचे रसंठियसि अणंता जीवघणा उप्पजिता उप्पज्जित्ता निलीयंति, विस्तीर्ण, मध्ये संक्षिप्त, उपर विशाळ, नीचे पल्यंकाकारे स्थित, १. अहीं छही विभक्ति, बीजी विभक्तिना अर्थमा वपराएली छे:-श्रीअभय. १. मूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये पाचाडात्याः स्थविरा भगवन्तो येनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तेनैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽदूरसामन्ते स्थित्वा एवम् अवादिषुः-तद् नूनं भगवन् ! असंख्येये लोके अनन्तानि रात्रिदिवानि उत्पन्नानि वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा; विगतानि वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति वा; परी पानि रात्रिंदिवानि उत्पन्नानि वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा ? विगतानि वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति वा? हन्त, आर्य ! असंख्येये लोके अनन्तानि रात्रिंदिवानि, तञ्चैव. तत् केनाथन यावत्-विगमिष्यन्ति वा ? तद् नूनं भवताम्-आया:! पावनाऽईता पुरुषादानी येन शाश्वो लोक उक्तः, अनादिकः, अनवनताप्रः, परीतः, परिवृतः, अधो विस्तीर्णः, मध्ये संक्षिप्तः, उरि विशालः, अधः पत्यरकसंस्थितः, मध्ये वरवजविप्रहितः, उपरि ऊर्ध्वमृदंशाकारसंस्थितः, तस्मिंश्च शाश्वते लोकेऽनादिके, अनवनताप्रे, परीते, परिवृते, अधः विस्तीर्णे, मध्ये संक्षिप्ते, उपरि विशाले, अधः पल्यङ्कसंस्थिते, मध्ये वरवजविप्रहिते, उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाऽऽकारसंस्थिते अनन्ता जीवधना उत्पद्य, उत्पद्य निलीयन्तेः-अनु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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