Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 224
________________ २११ भौरान-जिनागमसंग्रह शतक ५.-उद्देशक. ७, २. प्र०-दुप्पएसिए णं भंते । बंधे एयति, जाव-परिणमइ! २. प्र०-हे भगवन् ! वे प्रदेशनो स्कंध कंपे यावत् - परिणमे ! २. उ०-गोयमा ! सिय एवति, जाव-परिणमाति, सिय २. उ०-हे गौतम! कदाच कंपे यावत्-परिणमे-१. कदाच णो एयति, जाव-णो परिणमति; सिय देसे एयति, देसे नो न कंपे यावत्-न परिणमे-२. तथा कदाच एक भाग कंपे, एक एयति. भाग न कंपे-३. ३. प्र०-तिप्पएरासिए णं भंते ! खंघे एयति ? ३.प्र०-हे भगवन् ! त्रण प्रदेशवाळो स्कंध कंपे!. ३. उ० - गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति, सिय ३. उ०-हे गौतम ! कदाच कंपे-१. कदाच न कंपे-२. देसे एयति-नो देसे एयति, सिय देसे एवति-नो देसा एयंति; कदाच एक भाग कंपे, एक भाग न कंपे-३. कदाच एक भाग सिय देसा एयंति-नो देसे एयति. कंपे, बहु देशो न कंपे-४. कदाच बहु भागो कंपे, एक भाग न कंपे-५. ४. प्र०-चउप्पएसिए णं भंते । खंधे एयति? ४. प्र०-हे भगवन् ! चार प्रदेशवाळो स्कंध कंपे छे? ४. उ०-गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति, सिय ४. उ०-हे गौतम! १ कदाच कंपे. २ कदाच न कंपे. देसे एयति-णो देसे एयति, सिय देसे एयति-णो देसा एयंति, ३ कदाच एक भाग करे अने एक भाग न कंपे. ४ कदाच एक सिय देसा एयंति-मो देसे एयति; सिय देसा 'एयति-ना दसा भाग कैपे अने बहु भागो न कंपे. ५ कदाच बहु मागो कंपे अने एयंति. जहा-चउप्पएसिओ तहा पंचपएसिओ, तहा जाव- एक भाग न कंपे. ६ कदाच घणा भागो कंपे अने घणा भागो अणंतपएसिओ.. न कंपे-जेंम चार प्रदेशवाळा स्कंध माटे कडं तेम पांच प्रदेशवाळा स्कंधथी मांडी. यावत् अनंतप्रदेशवाळा स्कंध सुधीना दरेक स्कंधो माटे जाणवू. .. १. षष्टोदेशकान्यसूत्रे कर्मपुद्गलनिर्जरा उक्ता, निर्जरा च चलनम् इति सप्तमे पुद्गलचलनम् अधिकृत्य इदमाह:- 'परमाणु-' इत्यादि. 'सिय एयति ' त्ति कदाचिद् एजते, कादाचित्कत्वात्-सर्वपुद्गलेषु एंजनादिधमाणीम् द्विप्रदेशिके त्यो विकल्पा:-१ स्याद् एजनम् , २ स्याद् अनेजनम् , ३ स्याद् देशेन एजनम्-देशेनाऽनेजनं चेति; संशत्वात्तस्यति. त्रिप्रदेशिके पञ्च-आद्यास्त्रयः त एव, व्यणुक्रस्याऽपि तदीयस्य एकस्यांशस्य तथाविधपरिणामेन एकदेशतया विवक्षितत्वात् , तथा ४ देशस्य एजनम् , देशयोश्वाऽनेजनम्इति चतुर्थः. तथा ५ देशयोरेजनम् , देशस्य चाऽनेजनमिति पञ्चमः: एवं चतुष्प्रर्वशिकेऽपि, नवरम्:-षट् , तत्र षष्ट्रो देशयोः एजनम् , प्रदेशयोरेव चाऽनेजनमिति. १. छहा उद्देशकना छेल्ला सूत्रमा कर्मपुद्गलनी निर्जरा कही छे अने ए निर्जरा चलनरूप छ माटे हवे सांतमा उद्देशकमां पुतलोनी चलन माणु भने स्कं- क्रियानो अधिकार करी आ-['परमाणु-' इत्यादि.] सूत्र कहे छे. [ सिय एवंद 'त्ति ] कदाच कंपे, कारण के, दरेक पुद्गलोमां कंपवू गोना कंपनने ल- वगेरे धर्मो कादाचित्क छे. द्विपदेशिक स्कंध, वे भागवाळो छ माटे ते वे प्रदेशवाळा स्कंधमां त्रण विकल्प छैः-१ कदाच कंपवू, २ कदाच तो विचार, न कंपवं, ३ कदाच एक भागवडे कंपq अने एक भागे न कंपवू. प्रण-प्रदेशवाळा स्कंधमां पांच विकल्प छे. ते पांच विकल्प आ प्रमाणे : प्रण प्रदेशवाळा स्कंधमां त्रीजा परमाणुनो एक अंश-जे द्वचणुकरूप छेतेने पण एकदेशपणे विवक्षलों छे. कारण के, ते जातर्नु परिणमन पण थह शक छे माटे अहीं पूर्वेचे प्रदेशवाळा स्कंधमां कसा ते ज प्रण विकल्पो जाणवा, तथा 'एक भागनुं कंपअने बे भागनुं न कंपq । ए चोथो विकल्प छ अने 'बे भागर्नु कंपवु अने एक भागर्नु न कंपq 'ए पांचमो विकल्प छे. ए प्रमाणे चार प्रदेशवाळा स्कंधमां पण जाणी कनिका लेवू, विशेष ए के, तेमा छ विकल्प थशे, तेमां पांच विकल्प तो हमणां कहा ते जाणवा अने 'बे भागर्नु कंपन अने बे प्रदेश - भागनुंअकंपन ' ए प्रमाणे छट्ठो विकल्प छे. परमाणुपुनलादि अने असिंधारा. ५. प्र०--परमाणुंपोगलेणं भंते ! अंसिंघारं वा, खुरधारं ५.-प्र०-हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल, तरवारनी धारंनो या था ओगाहेजा? सजायानी धारनो आश्रय करे? १. मूलच्छायाः-द्विप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्ध एजते, यांवत्-परिणमति ? गौतम! स्यात् एजते, यावत्-परिणमति; स्याद् नो एजते, यावद् मो परिणमति; स्याद् देश एजते, देशों न एजते. विप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्धः एजते ? गौतम ! यदि एत्रते, स्याद् नो एजते, स्याद् देश एजते-नो देशः एजते, स्याद् देश एजते-नो देशा एजन्ते, स्माद् देशा एजन्ते-नो देश-एजते. चतुष्प्रदेशिको भगवन् ! सन्ध एजते ? गौतम । स्याद् एजते, स्याद् नो एजते, स्याद्-देश एजते-नो देश एजते, स्वाद देश एजते नो देशो एजन्ते, सा देशाः एजन्ते-नो देश'एजते, स्याद् देशा एजन्ते-नो देशा एजन्ते. यथा चतुष्पदेशिकत्तयां पञ्चप्रदेशिका, तथा यावत्-अमतप्रदेशिकः . २. परमाणुपुरलो(ला) भवन् । असिधारा पा, भुरधारा बाबगाहेत :-मनु. Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358