Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 199
________________ शतक ५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिभणीत भगवतीसूत्र. इति. वाचनान्तरे तु इदं सूत्रं साक्षादेव उपलभ्यते इति. 'आलावं व' त्ति सकृजल्पम्. 'संलावं वत्ति मुहुर्मुहुल्य मानसिकमेव इति. 'लद्धाओ' ति तदवधेर्विषयभावं गताः. 'पत्ताओ' त्ति तदवधिना सामान्यत: प्राप्ताः परिच्छिन्ना इयर्थः. ' अभिसमण्णागयाओ' त्ति विशेषतः परिच्छिन्नाः, यतस्तेषाम् अवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडी विषयम् , यच्च लोकनाडीग्राहकं तद मनोवर्गणाग्राहकं भवत्येव, यतो योऽपि लोकसंख्येयभागविषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही, यः पुन: संभिन्नलोकनाडीविषयोऽसौ कथं मनोद्रव्यग्राही न भविष्यति ? इध्यते च लोकसंख्येयभागाऽवधेर्मनोद्रव्यग्राहित्वम्, यदाह:-" संखेजमणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो" ति. अनुत्तरसुराधिकाराद् इदमाहः- अणुत्तरा-' इत्यादि. 'उदिण्णमोह' त्ति उत्कटवेदमोहनीया:. 'उसंतमोह ' ति अनुत्कटवेदमोहनीयाः-परिचारणायाः कथंचिदप्यभावात् , नतु सर्वथा उपशान्तमोहाः, उपशमश्रेणेस्तेषामभावात. 'नो सीणमोह । ति क्षपकश्रेण्या अभावाद इति. पूर्वतनसूत्रे केवल्यधिकाराद इदमाहः- केवली' इत्यादि. ' आयाणहिं, त्ति आदीयते गृह्यतेऽर्थ एभिरिति आदानानि इन्द्रियाणि तन जानाति फेवलित्वात्. 'अस्ति समयसि' त्ति अस्मिन् वर्तमाने समये. ' ओगाहित्ता णं' त्ति अवगाह्य आक्रम्य. 'सेयकालंसि वि ' ति एष्यत्कालेऽपि. “वीरियसजोगसद्दव्बयाए ' विीर्यम्वीर्याऽन्तरायक्षयप्रभवशक्तिः, तबधान सयोगम्-मानसादिव्यापारयुक्तम् , यत् सद विद्यमानं द्रव्य जीवद्रव्यं तत् तथा-वीर्यसद्भावेऽपि जीवद्रव्यस्य योगाद् विना चलनं न स्याद इति-सयोगशब्देन सद्रव्यं विशेषितम् , 'सद्' इति विशेपणं च-तस्य सदा सत्ताऽवधारणार्थम्. अथवा स्व आत्मा, तद्रूपं द्रव्यं स्वद्रव्यम्, ततः कर्मधारयः, अथवा वीर्यप्रधानः सयोगो योगवान् वीयेसयोगः, स चासौ सद्रव्यश्च मनःप्रभृतिर्वगणायुक्तो वीर्यसयोग-सद्रव्यः-तस्य भावस्तत्ता तया हेतुभूतया, 'चलाई' त्ति अस्थिराणि, 'उवकरणाई' ति अङ्गानि. 'चलोवगरणवयाए य' ति चलोपकरणलक्षणो योऽर्थस्तभावश्चलोपकरणार्थता-तया. च शब्दः पुनरर्थः. ७. केवलिनी अने छद्मस्थनी वक्तव्यताना प्रस्तावमा ज आ [केवली '] इत्यादि सूत्र कहे छे अने जे प्रकारे केवली जाणे छे ते प्रकारे छद्मस्थ जाणतो नथी तो पण कांइक रीते जाणे छ, ए वातने दर्शावतां सूत्रकार [ ' सोचा '] इत्यादि सूत्र कहे छे. [ 'केवलिस्स व' ति] केवलिनी-जिननी-पासेथी आ अंतकर थशे' इत्यादि वचन सांभळीने जाणे छे. [ 'केवलिसावगस्स व ' त्ति ] सांभळवानो अर्थी बना थंइ जिननी पासे तेना वाक्योने जे सांभळे ते केवलिश्रावक ' तेनुं वचन सांभळीने जाणे. कारण के, ते केवलिश्रावक जिननी पासे बीजां अनेक वाक्यो सांभळतो आ-अमुक मनुष्य-अंतकर थशे' इत्यादि वाक्य पंण सांभळे अने तेथी ते-केवलिश्रावक-ना वचनने सांभळीने जाणे. ['केवलिउवासगस्स व 'त्ति ] सांभळवानी इच्छा विनानो मात्र केवलिनी उपासनामां तत्पर थई जे केवलिने उपासे ते 'केवल्युपासक 'तेनुं केवलि-उपासक वचन सांभळीने जाणे छे. प्रायः भावना पूर्व पंठे जाणवी. [ तत्पक्खियस्स व ' त्ति ] केवलिना पक्षना मनुष्यनु-स्वयंबुद्धनु. अहिं ' श्रुत्वा' स्वर एटले सांभळीने अर्थात् ते श्रवण, ज्ञान-जाणवा-तुं निमित्त होवाथी मात्र साधारण वचनरूप छे, पण ते 'वचन आगम प्रमाणरूप नथी, कारण, 'आगम प्रमाणरूप वचन विषे तो हवे पछी प्रमाणना भेदो आवशे तेमां कहेवानुं छे. [पमाणे ' ति] जेनाथी अर्थ-पदार्थ-जाणी शकाय प्रमाण, ते प्रमाण अथवा ' जाणवू ' ते प्रमाण. [ 'पञ्चक्खे' त्ति ] जीव प्रत्ये गयखें एटले जीव माथे सीधो संबंध धरावतुं अने इन्द्रियो प्रत्ये गयेलं प्रत्यक्ष. एटले इन्द्रियो द्वारा जीव साथे संबंध धरावतुं ते प्रत्यक्ष अर्थात् अक्ष-जीव, इन्द्रियोनी सहाय विना ज जीवने जे ज्ञान थाय ते प्रत्यक्ष अने अक्ष-इन्द्रियो, इन्द्रियोनी सहायता वडे ज जीवने जे ज्ञान थाय ते पण प्रत्यक्ष. [ ' अणुमाणे ' नि] अनु एटले हेतुनें ग्रहण अने संबन्धव्याप्ति-नुं स्मरण कर्या पछी जे वडे पदार्थy ज्ञान थाय ते अनुमान. [ ओवम्मे ' ति] जे वडे, सरखाइथी पदार्थनुं ग्रहण थाय ते उपमा अने जा उपमा ए ज औपम्य. [ 'आगमे ' तिजे गुरुपरंपराए आवे ते आगन. ए चारे प्रमाणोनुं स्वरूप, शास्त्रना लाघव माटे अतिदेशथी-बीजा आगम. शास्त्रनी तुल्यता वडे मूळकार जणावे छे-['जहा' इत्यादि.] अने ए वरूप आ प्रमाणे छेः ते चारे प्रमाणोमा प्रत्यक्ष प्रमाण के प्रकारनुं छे, एक भी एक अनुयोग द्वार. इन्द्रियप्रत्यक्ष अने बीजं नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष. तेमां' श्रोत्र' वगरे पांच इन्द्रियो होबाथी इन्द्रिय प्रत्यक्ष पांच प्रकारचें छे, अने नोइन्द्रियप्रत्यक्षं, तेना' अवधि, मनःपर्यव अने केवल ' एन त्रण भेद होवाथी त्रण प्रकारनु छ. अनुमान प्रमाण त्रण प्रकारचें छे, एक पूर्ववत् , बीजु शेषवत् परत अने श्रीजु दृष्टसाधर्म्यवत्. पूर्ववत् एटले पूर्व उपलब्ध मुख्य लक्षण-निशान-थी माता बगरे प्रमातृजनने पुत्र वगेरेनुं जे ज्ञान थाय ते पूर्ववत् ' अनुमान कहेवाय. शेषवत् एटले कार्य वगैरेनी निशानीओथी परोक्ष पदार्थनु ज ज्ञान थाय ते ' शेषवत् ' अनुमान कहेवाय. जेमके, अहिं केका का- साधम्यवत् . यित होवाथी-मयूरनो शब्द होवाथी-मयूर होवो जोइए. दृष्टसाधर्म्यवत् एटले एक पदार्थना स्वरूपनुं निरीक्षण करवाथी एवा स्वरूपवाळा वीजा पदार्थों पण ए प्रकारना छे एबुं जे ज्ञान ते ' दृष्टसाधर्म्यवत् ' अनुमान कहेवाय, जेमके, एक कार्षापण-एंशी रतिभारना एक, कर्ष-ने जोवाथी कापिण. एना जेवा जे बीजा ते पण कार्षापण कहवाय. जेवी गाय छे तेवो गवय छे' इत्यादि ज्ञान : औपम्य' कहेवाय. आगमना लौकिक अने गवय. लोकोत्तर एवा बे प्रकार छे अथवा सूत्र, अर्थ अने सूत्रार्थ एवा त्रण प्रकार छ अथवा, आत्माऽऽगम, अनन्तरागम अने परंपरागम एम बीजी रीते पण आगम त्रण प्रकारनो छे. अर्थनी अपेक्षाए जिनने आत्मागन, गणधरने अनंतरागम अने गणधरना शिष्योने परंपरागम करवाय, सूचनी अपेक्षाए तो गणधरने आत्मागम, गणधरना शिष्योने अनंतरागम अने गणधरना शिष्यना शिष्योने परंपरागम. अहीं साक्षी तरीके पणावेला आ प्रकरणनी हद बतायता सूत्रकार कहे छे के, [ · जाव' इत्यादि. ] [ 'तेण परं' ति ] सूत्रथी गणधरना शिष्योने अनंतरागम अने अर्थथी तेओने परंपरागम, त्यार बाद तेना प्रशिष्योने-ए पाठ सुधी. केवलिना अने बीजाना प्रस्तावमा ज आ बीलु-['केवली '] इत्यादि कहे छे. जे शैलेशीने छेले समये अनुभवाय ते चरमकर्म अने त्यार पछी लगोलगना समय जीव प्रदेशोथी जे छुटुं पडे-खरी पडे-ते तो चरम- चरम १.प्र. छा०-संख्येयमनोद्रव्ये भागा लोकपत्यस्य बोदव्यः-अनु. 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