Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 216
________________ २०६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५. - उद्देश. ६. " ति विध्यायमानाऽनलाsपेक्षयाऽतिशयेन महान्ति कर्माणि ज्ञामाऽऽवरणादीनि बन्धनान्त्रिय यस्याऽसौ महाकर्मतरः एवम् अन्यान्यपि. नगरम् - क्रिया दाहरूपा, आश्रयो नक्कमपादानहेतुः वेदना पीडा भाविनी सत्कर्मजन्या, परस्परशरीरसंबाध जन्या वा • वोकसिनमाणे 'ति व्यपकृष्यमाणोऽपकर्ष गच्छन्, 'अणकम्मतराए ति अङ्गारायाम् आश्रित्य अपशब्दः स्तोकार्थः, रक्षावस्थायां तु अभावार्थ: C " " २३. कियाना अधिकारी आ [ अगणी इत्यादि ] सूत्र कहे छे:-[ अनोजलिए [वि] हम जगलो. [ महाकम्मतराष्ट्र महाकमै ति ] भोलवाता अमिनी अपेक्षाए जे, बंधने आधी पण मोठा ज्ञानावरणीयादि कर्मबंधन हेतु होवाथी महाकर्मतर हे ए प्रमाणे बीज पण महातिर विशेषणो जागवा विशेष के दावा कियारूप समजयो, जेथी अभि महाकियतर के अने नवीन फर्मने ग्रहण करवामां हेतु ए आव समजयो, जेभी अभि महाप्रयतर के, हवे पछी पत्रानी अने तेनाकर्मी उपजी पीडा से बेदना अथवा परस्पर शरीरना संगावधी अल्पकर्मतर उपजती पीडा ते वेदना, जेथी अभिकाय महावेदनावाळो छे, [' बोक्कसिनमाणे 'ति ] अपकर्ष पामतो - ओटो घतो. [ अपकम्मतराए 'त्ति ] अप- अंगारादि अवस्थाने आधी अल्पकाळ छे, अहिं अस्पशब्दनो सोडधोड ए अर्थ छे भने स्यार अभिनी भरमावस्था होय लारे अनि अल्पकर्मतर - कर्मरहित छे अर्थात् अग्निना भस्मावस्थाचाळा पक्षमां ' अ ' शब्दनो' अभाव ' अर्थ करवो. L 6 , " - १०. प्र० - पेरिसे णं ते! धणुं परामुख, परामुखत्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाई, ठित्ता आयतकत्राययं करेति, उर्दु पेहासं उ उध्विद, तर णं से उसुं उदुं नेहा उहिए समाणे जाई तर पाणाई, मूगाई, जीवाई, सत्ताई अभिहण, बचेति लेखेति, संघारह, संघट्टेति, परितापे, कलामेद, ठाणाओ ठाणं संकाम, जीवियाओ पपरोर, तए णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए तत्थ पुरुष अने धनुष्य. १०. उ०- गोयमा ! जावं च वं से पुरिसे पणुं परामुसद, परामुसित्ता जाव - उब्विहइ, तावं च णं पुरिसे काइयाए जावपाणाइवाय किरियाए पंचहि किरियाहि पुढे जेसिपि य णं जीवाणं सरीरेहिं च निम्बलिए विणं जीवा काइयाए जाव- पंचहि किरियाहिं पुट्टे, एवं धगु पुढे पंचहिं किरियाहिं, जीना पंच हा पंचहिं, उनू पंचाहि सरे, पचणे, फले, हारू पंचहिं. , Jain Education International ११. ५० अहे से उसू अपनो गुरुयत्ताए, मारियताए - णं गुरुसंभारियत्ताए, अहे वीससाए पचोवयमाणे जाई पाणाई, जावजीवियाओ क्यररोपे तार्थ च में से पुरिसे कतिफिरिए 6 १०. प्र० -- हे भगवन् ! पुरुष धनुष्यने ग्रहण करे, ग्रहण करी बाणने ग्रहण करे, तेनुं ग्रहण करी स्थान प्रत्ये बेसेधनुष्यची वाणने केली वेनुं आसन करे-तेन बेसी फेकला प्रसारेला बाणने कान सुची आयत करे-खेवे, खेची उंचे आकाश प्रत्ये वाणने फेंके, सार बाद ते उंचे आकाश प्रये फेंकाए वाण, त्यां आकाशमा जे प्राणोने, भूतोने, जीवोने, सोने, सामा आवता हणे, तेओनुं शरीर संकोची नाखे, तेओने श्लिष्ट करे, तेओने परस्पर संहत करे, तेओने थोडो स्पर्श करे, तेओने चारे कोरथी पीडा पमाडे, तेओने क्लांत करे, तेओने एक स्थानची बीजे स्थाने उड़ जाय भने तेओने जीवितथी स्त करे तो हे भगवन्! ते पुरुष टीकाळ छे ? १०. उ०- हे गीतम करे छे यावत् तेने फेंके छे, यावत् प्राणातिशति की किराने यावत् ते पुरुष धनुश्यने प्रण तावत् ते पुरुष कायिकी क्रियाने अर्थात् पांच किसने फरसे छे. भने जे जीवोना शरीरो द्वारा धनुष्य वधुं छे ते जी पण यावत् पांच क्रियाने फरसे छे, ए प्रमाणे धनुानी पीठ पांच क्रियाने फरसे छे, दोरी पांच क्रियाने, हारु पांच कपाने, बाग पांच क्रियाने, शर, पत्र, फल अने महारु पांच क्रियाने फरसे छे. ११. प्र० - अने हवे ज्यारे पोतानी गुरुता वडे, पोताना भारेपणा वडे, पोतानी गुहकता अने संभारता वडे ते बाण स्वभा यी नीचे पडतु होप त्यारे त्यां (मार्गमां आवता) प्राणोने यावत् जीवितधीत करे सारे ते पुरुष केटली क्रिया वाळो होय ! ११. उ०- हे गौतम! यापत् ते बाण पोतानी गुरुतावडे ११. उ०- गोवमा ! जावं से उसुं अपनो पुरुष भगवत्पतुः पराति परामृश्य परापश्यनेतिति खानेागतं करोति , १. ऊर्ध्वं विहायसि इषु उत्क्षिपति, ततः तस्मिन् इयौ ऊर्ध्वं विहायसि उत्क्षिप्ते सति यान् तत्र प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् अभिहन्ति, वर्तयति, पयति, संघातयति, संघटयति, परितापयति, क्लमयति, स्थानात् स्थानं संक्रस्यति, जीविताद् व्यारोपयति ततो भगवन् । स पुरुषः कंतिक्रियः ? गौतम ! यावच्च स पुरुषो धनुः परामृशति, परामृश्य यावद् उत्क्षिपति तावच स पुरुषः कायिक्या यावत् प्राणाऽतिपातक्रिपया पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः येषामपि च जीवानां शरीरैः धनुः निर्वर्तितं तेऽपि च जीवाः कायिकया, यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः, एवं धनुः स्पृष्टं पदभिः क्रियाभिः, जीवा पश्चभिः, स्नायुः पञ्चभिः, इषुः पञ्चभिः शरः, पत्रणम् फलम्, स्नायुः पञ्चभिः अधः स इषुः आत्मनो गुरुकत्या, भारिकतया, गुरुसंभारिकता अधः विश्वसया प्रत्यवपतन् यान् प्राणान् यावत् - जीविताद् व्यपरोपयति तावच स पुरुषः कतिक्रियः ? गौतम ! गावच स इपुः आत्मनः -- अनु० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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