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शतक ५.- उद्देशक ३.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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१. आगळ जपावेली पण समुद्र पिंगेनी हकीकत साथी छे, कारण के, ते हकीकत सम्यक ज्ञानवाला पुरुषो जणावी. अने वात मिथ्यादृष्टि पुरुषोए जणावेल होय छे ते वात खोटी पग होय छे-अड़ीं एवी एकाद खोटी वातने देखाडतां श्रीजा उद्देशकनुं आ आदिसूत्र
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कहे छे के, [ ' अन्नउत्थिया णं ? इत्यादि. ] [ ' जालगंठिय' ति ] माछलांने पकडवानुं साधन ते जाळ, अने जेमां तेनी जेवी गांठो होय छे ते जालग्रंथिका अने जाळग्रंथिका अर्थात् एक जातनी गुंथेली जाळी, ते केवी जातनी ? तो कहे छे के, [' आणुपुबिंगढिय' त्ति ] क्रमवार गुंथेंली अर्थात् जेमां तेनुं वर्णन. जे गांठ पहेली जोइए लेने पहेली गेली अने ने गांड छेडे जोहतेने छेडे गुंबेली छे. एज वातने विगतवार कहे छे के ['अनंतरनदिय ति]
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जे पहेली पहेली गांठोनी अांतरे सदन पासे रहेली गांठो साधे गुंथेली के ते अनंतरग्रथित कहेबाय, ए रीते जे बबली वली गांठो साथे गुंली होय ते परंपरचित कद्देवाय तात्पर्य एछे के [ अनन्नगदियति ] जे परस्पर गुंबेली एक सांधे बीजी अने बीजी साधे त्रीजी एम एका बीजी गांठो साथ गुंथेली छे ते ' अन्योन्यप्रथित ' कहेवाय, अने (एवी जालग्रंथिका ) ए रीते [ ' अन्नमन्नगरुयत्ताए ' त्ति ] परस्प गुंथणी करयाची एक विस्तारखडे, [ अन्न-नभारियतार ति ] परस्परना योजाने कहने भर भारेपणायडे, हगणां कहेल बन्ने विशेषणोनो जूदो जूदो अर्थ भेगो करवाथी जे अर्थ थाय छे तेने-ए बन्ने विशेषणोना प्रकर्षने जगावबाने कहें छे के, [ ' अन्नमन्नगस्य संभारियत्ताए 'चि ] परस्परना विस्तारपणावंडे अने भारेपणावडे, [' अन्नमन्नघडत्ताए 'त्ति ] परस्पर समुदायनी रचनावडे [ ' चिट्ठइ 'त्ति ] रहे छे-होय छे. ए रीते जालग्रंथिकानुं उदाहरण देखा है. हमे दाष्टतिक जे माटे उदाहरण दर्शान् के ते पदार्थ-ने जनाने छे के [ एवामेव ति.] एज रीतें पण जीवों संबंधी, [' बसु आजारसहस्से ति] प्रत्येक जीव प्रति क्रमवार प्रां एवां देवाविना अनेक अवतारनां पण हजार आउखाओ (आउखांओना स्वामिओ अने अवतारो घना छे माटे आउखाओ पण घण कक्ष छे.) आनुपूर्वनिधि वगैरे विशेषणोनी व्याख्या तो पूर्वनी पेठे समजश्री. विशेष ए के, आप कर्मनी अपेक्षा भारेपणुं समज. एआयुष्योने वेदवानो कयो प्रकार छे सो कहे छे के, [एगे रवं इत्यादि. अनेक जीव तो नहीं, पण एक जीव एक समये इत्यादि वधुं प्रथम शतकेंनी पंठे जाग आ स्थळे जवान आ रीते छ[जे से एवं आसु इत्यादि . ] तेओनुं कहेतुं आ रीते खोटं छे:- जे- घणां जीवोनां घणां आउखांओ जालग्रंथिकानी पेठे रहे छे ते बधां आउखांओ, जीवना प्रदेशों साये रीतसर संबंध धरावे छे के संबंध नथी घरात जो ते आउलांओ जीवना प्रदेशो साधे रीतसरनो संबंध धरावे छे तो गंधिकानी पेठे तेनी कल्पना करवी ज खोटी छे. कारण के, ते वधां भउखांओ जूदा जूदा जीवो साधे गोदाएलां छे अने भी ज ते धानुंहोवाने सीधे तेनी कल्पना जालग्रंथिका जेवी करवी ते खोटी छे. तेम छतां कदाच जालग्रंथिकानी जेवी कल्पना करवामां आवे तो बना जीवोनो संबंध पण जालग्रंथिकानी जेवो मानवो जोइए. कारण के, आयुष्योनो सीधो संबंध जीवो साथ छे तेथी ज्यां सुवी जीवोनो परस्पर संबंध जाथिका जत्रो न मानयामां आवे त्यां सुधी जालगंधिकानी कल्पना आयुष्यने घटती नथी माटे ते कल्पना आयुष्य लागु पाडतां संबंध माटे पण तेषी ज कल्पना करवी जोइए अने जोगीवो माटे पण वीज कचना करवामां आवे तो संसारना बधा जीवो द्वारा एक साधे बची जान आयुष्यो भोगवाय जोइए अने तेम थदाथी एक साथे अनेक भयो भोगदान प्रसंग आये तेम छे. माटे आयुष्य संबंधे जालग्रंथिकानी कल्पना करवी ए ज खोटुं छे. जो कदाच एम मानवामां आवे के, ते आयुष्यो, जीव साथ संबंध राव नथी तो आयुष्या कारणधी जीवोनो देवादि गतिमा जे अवतार धाय हे ते संभवी शक नहीं. कारण के, जी अने आयुष्यो कोइ पण प्रकारनो संबंध न होवाथी आयुष्य निमित्तक जरा पण असर जीवने यह शकशे नहीं-साधारण नियम प्रमाणे जे बेने परस्पर संबंध होय तेज बे परस्पर एक बीजाने असर करी शके तेम छे अने अहीं तेम न होवाथी आयुष्यथी उत्पन्न थता अवतार वगैरेनो असंभव थइ जशे. माटे जीव अने आयुष्यो बच्चे संबंध तो मानवो ज जोइए. बळी, जे कयुं छे के, 'एक जीव एक समये वे आयुष्योने अनुभवे छे ' ते पण खोढुं छे. कारण के, एम मानवाची एक साये वे भत्र भोगानो प्रयंग आवी जाय छे अने एम वतुं नयी माटे एक जीवने एक समये में आयुष्य मोगानुं मानवुं ते खोटुं छे. [ ' अहं पुण गोयमा !' इत्यादि. ] आं पक्ष ' जालग्रंथिका ' नो मात्र 'सांकळी' अर्थ करवो. [ : एगमंगस्स ' इत्यादि. ] बीजा पक्षमां. घणा जीयोने नहीं पण एक एक जीवने अनेक आयुष्योनो मात्र सांकळ नेत्रो संबंध होय के अर्थात् एक जीवयति कमवार प्रां एवां अनेक जन्मोगां आ भयना छेडा सुधीनां भूतकाळे घर गएला (भूतकाळनी अपेक्षा हयाती धराया हजारो आओ गान सांकळ जे संबंध घराचे छे एक भावना आयुष्यनी साधे बीजा मनुं आयुष्य प्रतिबद्ध छे अने तेनी साये भीड आयुष्य प्रतिवद्ध के अने ए रीते ए वर्षों प्रतिपद्ध छे एटले एक पछी एक आयुष्य अनुभवमां आध्ये जाय छे. पण एक ज भवमां ज बधां आउखांओ प्रतिबद्ध नथी. [ ' इहमवियाउयं व ' त्ति ] वर्तमान- बालु भवनुं आयुष्य, [ परभवियाउयं व' ति ] चालु भव पण परभवमा भोगचवाने योग्य बल आयुष्य ते परभविक आयुष्य ज्यारे जीव परभवे जाय छे त्यारे ते, ते आयुष्यने भोगवे छे माटे कहेवाय छे के, [' परभवियाउयं व ' त्ति. ]
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नैरविकादि अने आयुष्य.
२. प्र० – जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से कि साउए संकम
२. उ० -- गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ.
३. प्र० - से णं भंते ! आउए कहिं कडे, कहिं समाइणे ?
१. जूओ भ० प्र० खं० पृ० २०.४. सायुकः संमत न निरा
१. मूढायाः जी कागति, भगवन्
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२. प्र० - हे भगवन् ! जे जीव नरके जवाने योग्य होय, हे भगवन् ! शुं ते जीव, अहींथी आयुष्य सहित थइने नरके जाय ? २. उ०- हे गीतम नरके जवाने योग्य जीव अहींची आयुष्य सहित थइने नरके जाय, पण आयुष्य विनानो न जाय.
३. प्र०-हे भगवन् से जीने ते आयुष्य क्यों बांध अने ते आयुष्य संबंधी आचरणो क्यां आचर्या ?
भगवन् यो भन्यो रविके उप कुकृतम् रामाची अनु
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कि सायुकः संक्रामति म
प्रथम शतक आरीत खोडं घे
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