Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 172
________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक २० - वि', जाव-पंचिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामिया वि. तओ पच्छा कहेवाय अने यावत्-यथासंभव पंचेंद्रिय जीवनां शरीरो पण सत्यांतीया, जाव-अगणिजीवसरीरा इ वत्तव्वं सिया. कहेवाय. तथा शस्त्र द्वारा संघट्टिा धया पछी यावत्-अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय. ३. वायुकायश्चिन्तितः, अथ वनस्पतिकायादीन् शरीरतश्चिन्तयन् आहः-'अह' इत्यादि. 'एए णं' ति एतानि. गं' इत्यलंकारे. 'किंसरीर' त्ति केषां शरीराणि. 'सुराए य जे घणे ' त्ति सुरायां द्वे द्रव्ये स्याताम्-घनद्रव्यम् , द्रवद्रव्यं च, तत्र यद धनद्रव्यम् 'पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च ' त्ति अतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गीकृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्व हि ओदनादयो वनस्पतयः. 'तओ पच्छ ' त्ति वनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वाऽनन्तरमग्निजीवशरीराणीत वक्तव्यं स्यादिति संबन्धः. किंभूतानि सन्ति? इत्याहः-'सत्यातीय त्ति शस्त्रेग उदूखल-मुशल-यन्त्रकादिना करणभूतेनातीतानि अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि. 'सत्थपरिणामिय' ति शस्त्रेण परिणामितानि कृतानि नवपर्यायाणि शस्त्रपरिणामितानि. ततश्च ' अगणिज्झामिय ' ति वह्निना ध्यामितानि श्यामीकृतान स्वकीयवर्णत्याजनात्. तथा ' अगणिझूसिय ' ति अग्निना झोषिताने पूर्वस्वभावक्षपणात्. अग्निना सेवितानि वा 'जुत्री प्रीति-सेवनयोः' इत्यस्य धातोः प्रयोगात्. ' अगणिपरिणामियाई' ति संजाताग्निपरिणामानि औष्ण्ययोगात्. अथवा 'सत्थातीआ' इत्यादी शस्त्रमग्निरेव. ' अगणिज्झामिया' इत्यादि तु तद्वयाख्यानमेवेति. 'उबले' ति इह दग्धपाणः. 'कसट्टिय'त्ति कट्टः. 'आविज्झामे' ति अस्थि च तद् ध्यामं च अग्निना ध्यामलीकृतम् -आपादितपर्यायान्तरमित्यर्थः. 'इंगाले' इत्यादि. अङ्गारो निर्जलितेन्धनम्. ' छारिए ' त्ति क्षारकं भस्म. 'भुसि ' ति बुसम् . ' गोमए ' ति छगणम्. इह च बुस-गोमयौ भूतार्यायानुवृत्त्या दग्धावस्थौ ग्राह्यौ, अन्यथा अग्निध्यामितादिवक्ष्यमाणविशेषणानामनुपपत्तिः स्यादिति. एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य एकेन्द्रियजीवैः शरीरतया प्रयोगेण स्वव्यापारेण परिणामिता येते तथा-एकेन्द्रियशरीराणि-इत्यर्थः. ' अपिः ' समुच्चये. ' यावत् ' करणाद द्वीन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिता अपि-इत्यादि दृश्यम्. द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासंभवमेव, न तु सर्वपदेषु-इति, तत्र पूर्वमङ्गारो भस्म च एकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात्. बुसं तु यव-गोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियशरीरम्. गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायामेकेन्द्रियशरीरम् , द्वीन्द्रियादीनां तु गवादिभिर्भक्षगे द्वीन्द्रिया दिशरीरमपि. ३. आगळना प्रकरणमा वायुकाय संबंधे चिंतन कर्यु छे अने हवे वनस्पतिकाय विगेरेना शरीर संबंधी चिंतन करतां जणावे छ के, [ अह '.इत्यादि.]['एए गं' ' ति ] ए [ किंसरीर ' ति ] कोनां शरीरो छे ? [ 'सुराए य जे घणे'.त्ति ] सुरा-दारु-मां बे जातनी चीजो छे. एक तो कठिन वस्तु-गोळ--अने बीजी प्रवाही वस्तु--पाणी. तेमां जे कठिन वस्तु छे ते, ['पुब्वभावपन्नवणं पडुच 'त्ति ] तेना 14-अज्ञापना. जूना आकारनी अपेक्षाए बनस्पतिनां शरीरो छे. कारण के, चोखा तथा गोळ वगरेनी पूर्वावस्था वनस्पतिरूप छे. [ 'तओ पच्छ ' ति] तेओ वनस्पतिनां शरीरो कहवाय त्यार पछी अग्निजीवनां शरीरो कहेवाय छे-एम संबंध करवो. तेओ (चोखा वगेरे ) केवा थया पछी अमिनां शरीरो शख.वीत. कहेवाय ? तो कहे छ के, [ ' सत्थातीय ' ति] खागीयो, सांबलं वगेरे यंत्रोवडे कूटाया पछी अर्थात् खाणीयो वगेरे यंत्रोवडे चोखा वगेरे पदार्थनी आगली अवस्था बदलाया पछी ते चोखा वगेरे ' शस्त्रातीत' कहेवाय. [ 'सत्थपरिणामिय ' त्ति ] शस्त्रवडे परिणाम--नवा आकार-ने पामेला-चोखा बगेरे 'शत्रपरिणामित 'कहेवाय, त्यार बाद [' अगणिज्झामिय ' त्ति ] तेओनो रंग छुटी गयो-बदली गयो-होवाथी अग्निवडे काळा करेला, तथा [' अगणिज्झसिय 'त्ति ] पूर्वनो खभाव खपी गएलो होवाथी · अग्निझोषित' कहेवाय अथवा अग्निजोषित-अमिथी सेवाएल कहेवाय. [ अगणिपरिणामियाई 'ति] हवे तेओ उनां थयां छे माटे अग्मिना परिणामवाळां कहेवाय अथवा 'शस्त्रातीत' विगेरे शब्दोमां अमितास. वपराएला शस्त्र शब्दनो अग्नि अर्थ ज समजवो. [ ' अगणिझामिया' ] इत्यादि शब्दो- विवेचन तो आाळ आवी गएलं जछे [' उवले' त्ति ] अहीं · उपल' शब्दनो अर्थ 'बळेलो पथरो' छे. [ ' कसट्टिय' त्ति ]: कह-काट, [ अहिज्झामे "त्ति ] अग्निवडे पर्यायान्तर-बीजा खरूप-ने पामेलुं हाडकुं अने तेनुं ध्याग-बळेलो भाग, [ ' इंगाले ' इत्यादि.] अंगार-बळेल इंधj--अंगारो, ['छारिए 'त्ति] राख, [भुसि' त्ति ] भुंसो-कुंबळ, [‘गोमए ' ति] छगण-छाण, आ स्थळे 'अँसो' अने 'छाण 'ए बन्ने बळेला लेवां, जो एम न करवामां आवे तो आगळ कहेला ' अग्निध्यामित' वगेरे विशेषणो अणघटतां-व्यर्थ-थइ जाय छे. ए बन्ने ( कुंवळ अने छाण) पूर्वनी अपेक्षाए एकेंद्रिय जीवनां शरीरो छ अर्थात् एकेंद्रिय जीवोए पोतानी क्रियावडे तेओने पोतानी साथे ['परिणामिया वि' 'त्ति ] परिणमावेला छे-एथी ज ए, एकंद्रिय परिणामित. जीवोनां शरीरो गणाय छे. अहीं । यावत् ' शब्द मूक्यो छे माटे बेइंद्रिय जीवोए पोतानी साथे परिणमावेला' इत्यादि वात पण १. मूलच्छाया:-अपि, यावत्-पश्चेन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिताः अपि. ततः पश्चात् शस्त्राऽतीताः, यावत्-अग्निजीव-शरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् :-अनु० १. अत्र मूले ' कसटिय'त्ति दृश्यते, अस्यार्थः श्रीटीकाकारेण 'क.' इति कृतः, कश्च लोहादीनां मलः-यो भाषायां काट' शब्देन ख्यातः. भगवतीअवचूर्ध्या तु ' कसहिया' स्थाने सकद्विका (1) दृश्यते, अर्थश्चास्य तत्र टीकाकारवत् 'क' इति कृतः-अयमेव अर्धः सुसंगतोत्र, तथाऽपि केचित् कषपष्टिका-कसहिया-इत्येतयोः साधर्म्यम् अवलोक्य ' कह' इत्यर्थे षकार-पकारौ आरोप्य ' कष' इति लपन्ति-कषप इति चं भाषायाम् ' कसोटी' शब्देन ख्यातः पाषाणविशेषः-अनु० १.,अहीनो 'ण' शब्द,अलंकारसूचक छे. २. आ शब्दमां प्रीति अने सेवा अर्थवाळो 'जुष' धातु वपराएलो छे. ३. 'अपि' शब्दनो समुषय अर्थ छे:-श्रीअभय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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