Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 121
________________ शतक ३ -उद्देशक ७. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. "खात्राणि संरअन्ति-एते शुभाशुननिवेदिनः, लोकपाला महात्मानो" "शुभ अने अशुभने जाण नारा महात्मा लोकपाको पोताना अयोने गर्गः. सजे छ.-गर्गः. "अस्त्राणि लोकपाला लोकाभावाय संत्वजन्ति-उल्का:-घरादः “लोकना संहारमाटे लोकपालो उल्का-अस्रोने छोटे छे"-वराह. (वृहत्संहिता, पृ० ४५६) (य. ए.पृ० ४५६) ए उत्तातोमा जे जे नानो अहीं जगावेला छे, ने ना पांखरां बृहत्संहितानां आ प्रमाणे जगाव्यां - प्रहयु :-(० स० पृ. ३२१) " वियति चरतां ग्रहाणाम्-उपर्युप.रे आत्ममार्गसंस्थानाम् । "आकाशमा गति करता, पोत पोताना मार्गमा उपराउपर रहेला अने अतिदूगद् ग् विषये समतामिव संप्रयातानाम्"। २ घणु दूर होवाने लीधे आपणने एक साथे थई गएला देखाता प्रहोर्नु युद्ध आसन्न-क्रनयोगाद् भेदो-लेखां-शुमर्दना-ऽअसव्यैः । आसन्न अने कमने लीधे चार प्रकारचें कडं छः--भेदयुद्ध, उल्लेखयुद्ध, युद्ध चतुष्पकार पराशराधमुनिभितर"। ३-प्रहयुद्धाध्यायः अंशुमर्दनयुद्ध अने अपसव्ययुद्ध." आ विषेनी विशेष विगत जाणवा माटे प्रहयुद्ध-अध्याय जोई लेवो जोइए. . प्रहशंगाटक--प्रहदंड--ग्रहमुशल-(पृ०-३४९-४३१) "चक-धनुः-शनाटक-दण्ड-पुर-प्रास-वनसंस्थानाः । “चक (१९), धनुष, सिंगोडु, दंड, नगर, प्रास अने वन ए पर्धा क्षुदवृष्टिकग लोके समराय च मानवेन्द्राणाम्"-ग्रहांगाटकाध्याय, प्रहोना संस्थानो (घाटो) छे अने ए अशुभसूच छे." प्रहापसव्य-(पृ. ३२२) "दक्षिणेनापसव्यं स्याद् उत्तरेण प्रद क्षणम् । " ज्यारे चंद्र, प्रदो अने नक्षत्रोनी दक्षिणे गति करतो होय सारे प्रहाणां चन्द्रमा यो नक्षत्राणां तथैव च--प्रहयुद्धाध्यायः 'अपसव्य ' कहेवाय अने ज्यारे एज उत्तरे गति करतो होय त्यारे 'प्रदक्षिण ' कहेवाय." अभ्रवृक्ष-(पृ. ४१२) • "दधिसदृशाम्रो नीलो भानुच्छादी खमध्यगोऽध्रतरुः"। "वादळाना-झाड जेवा घाटने अम्रवृक्ष के मेघनह कसो . ए वृक्ष, “ अभ्रवृक्ष मेघतरी"-संध्यालक्षगम्. नीलो होय छे अने तेनो अग्र भाग दहिना जेवो होय छे अने ए सूर्यने ढांकनारो भने आकाशनी बच्चे होय छे." संध्या-(पृ. ४२६) "अर्धास्त मितानुदितात् सूर्यादस्पष्टभ नभो यावत् । “अध्धा आथमेला अने अधा उगेला सूर्यने लीधे ज्या सुधी भाकाश सावत् संध्याकालश्चिहरेतः फल चास्सिन्" १ अस्पष्ट रहे छे तेटलो समय 'संध्याकाल' कहेवाय छे." " अहोरात्रस्य यः संधिः सा च संध्या प्रकीर्तिता। " दिवस अने रात्रीनी संधि (सांधा )ना भागने संध्या कहेवामा .. द्विनाडिका भवेत् साधुविदाज्योतिदर्शनम् "-संध्यालक्षणम् . आवे छे. तेनुं प्रमाण वे नाडिका छे अने ए, ज्योति ( ताराओ ) नुं दर्शन थतां पूरी थाय छे." गांधर्वनगर-(पृ. १७८) " गन्धर्वनगरमुत्थितमापाण्डुरं" वादळो उपर पडतां सूर्यना किरणोने लीधे आकाशमा थता मगरना "खपुर सिन-रक्त-पीत-कृष्णम्" देखावने गांधर्वनगर' कहेवामां आवे छे. ते धोछु, लाल, पीलु अने " अनेकवर्णाकृति खे प्रकाशवे पुरं पताका-ध्वज-तोरणान्वितम्"। काई होय छे-अनेक वर्ण अने आकारवाळु होय छे तथा पताका, धजा "बहुवर्णाताकाव्यं गन्धर्वन गरे महत्"-गन्धर्वनगरलक्षणम्, भने तोरणोथी मंडित पण होय." उल्काप त-(पृ. ४५५) " दिवि भुक्तशुभफलानो पतत रूपाणि यानि तान्युल्काः । "स्वर्गना सुखोने भोगवीने पडता आस्माओना स्पोने 'उहका' “धिष्ण्य-उल्का-अशनि-वद्युत्-तारा इति पञ्वधा भिनाः" ॥१ कहेवामां आवे छे. ते पाच प्रकारनी छे:-विष्ण्य, उल्का, अशनि, विद्युत् -उकालक्षणम्. अने तारा" दिग्दाह-(पृ. ४३९) " दाहो दिशां राजभयाय पीतो देशस्य नाशाय हुताशवर्णः । " भडका जेवी दिशाओगें नाम 'दिग्दाह ' छे-ते पीळो, अग्नि जेषो यश्वारुणः स्यादपसव्यवायुः सस्यस्य नाशं स करोति दृष्टः "॥१ अने लाल एम अनेक प्रकारनो होय हे-तेना रंगो प्रमाणे जूदा जर्दा -दिग्दाइलक्षणम्. फळो पण जणाव्यां छे" परिवेष-(पृ. ४६६) " सम्मूछिना रवीन्द्व': किरणाः पवनेन मण्डलीभूताः । 'थोडा वादळावाळा आकाशमा प्रतिबिंब पामेला सूर्य भने चंद्रना नानावण कृलय स्तम्। व्योम्नि परिवेषाः "-परिवेषलक्षणम्. किरणो वायुद्वारा मंडलीभूत थयो छनौ जे अनेक वर्ण भने आकारने धारण करे छे-एर्नु नाम परिवेष 'छे" प्रतिसूर्य-(पृ. ४८०) " उदयात् प्रभृति दिनप्रहरैक यावत् तनुघनोऽर्कसमीपे यदा भवति “ केटलीएक वार ज्य रे सूर्यना उदय थी मांडी एक प्रहर सुधी सूर्यनी सदा अरविनवशात् तत्र द्वितीयोऽक इ' लक्ष्यते स प्रतिसूय उच्यते. आसपास थोडा वादळां जामेलो होय छे स्यारे ते वादळ नु र्छ, सूर्यन: एवमस्तायेऽपि संभवति."-अर्क वार:--प्रतिस्पलक्षणम्. किरणोने लीधे बीजा सूर्य जेयं देवाय छे अने एनुं ज नाम प्रतिसूर्य छे. भाव। प्रतिसूर्य, सर्झना अखसमये पण जोई शकाय.? मिरको वायुमार मंडलीमूल भवानी मायाजक सार्थ जो कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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