Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 159
________________ शतक ५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र, १४९ इति एतत्-९४८६८* उत्कृष्टदिने तापक्षेत्रप्रमाणं भवति. कथम् ? जम्बूद्वीपपरिधेः किंश्चिन्यूनअष्टाविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकषोडशसहस्रोपेतयोजनक्षत्रय-३१६२२८-मानस्य दशभिर्भागे हृते यद् लब्धं तस्य त्रिगुणितसे एतस्य भावाद् इति. जघन्यरात्रिक्षेत्रप्रमाणं चापि एवमेव, नवरम्:-परिधेर्दशभागो द्विगुणः कार्यः, तत्राऽऽयं षड् योजनानां सहस्राणि, त्रीणि च शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षट् च दश भागा योजनस्य-६३२४६. द्वितीयं तु त्रिषष्टिः सहस्राणि, द्वे पञ्चचत्वारिंशदधिके योजनानां शते, षट् च दश भागा योजनस्य-६३२४५. सर्वलघौ च दिवसे तापक्षेत्रमनन्तरोक्तरात्रिक्षेत्रतुल्यम्. रात्रिक्षेत्रं तु अनन्तरोक्ततापक्षेत्रतुल्यमिति, आयामतस्तु तापक्षेत्रं जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि-इति. लवणे च त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि, त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि, त्रिभागश्च योजनस्य-३३३३३३. उभयमीलने तु अष्टसप्ततिः सहस्राणि, त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजन त्रिभागश्च इति७८३३३१. 'उकोसए अट्ठारसमुह ते दिवसे भवइ ' त्ति इह कि सूर्यस्य चतुरशीयधिक मण्डलशतं भवति. तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिमण्डलानि भवन्ति. एकोनविंशत्यधिकं च शतं तेषां लवणसमुदस्य मध्ये भवति. तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा वर्तते सूर्यस्तदा अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति. कथम् ? यदा सर्वबाह्ये मण्डले वर्ततेऽसौ तदा सर्वजघन्यो द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति. ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनस्य वृद्वौ व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले षड् मुहूर्ता वर्धन्त-इति-एवमष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति. अत एव द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य. ' अट्ठारसमुहत्ताणंतर' त्ति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले वर्तते सूर्यस्तदा मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहीनाऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति. स चाष्टादशमुहूतार्द दिवसाद् अनन्तरः ' अष्टादशमुहूर्तानन्तरः' इति व्यपदिष्टः. 'सालिरेगा दुवालसमुहुत्त ' त्ति द्वाभ्यां मुहूतेकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहर्ता 'राई भवइ ' त्ति रात्रिप्रमाणं भवतीत्यर्थः. यावता भागेन दिनं हीयते तावता रात्रिर्वर्धते-त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्पेति. 'एवं एएणं कमेणं' ति ' एवम् ' इत्युपसंहारे, एतेनाऽनन्तरोक्तेन 'जया णं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे दाहिणड़े' इत्यनेनेत्यर्थः. 'ओसारेयव्वं' ति दिनमानं हूस्वीकार्यम् . तदेव दर्शयतिः- सत्तरस' इत्यादि. तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरमण्डलाद् आरभ्यैकत्रिंशत्तममण्डलार्धे यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति-पूर्वोक्तहानिक्रमेण, त्रयोदशमुहूर्ता च रात्रिरिति. 'सत्तरसमुहुत्ताणतर' त्ति मुहूर्तेकषष्टिभाद्वयहीनसप्तदशमुहर्तप्रमाणो दिवसः, अयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्धे भवति, एवमनन्तरवमन्यत्राऽपि ऊह्यम्, 'साइरेगतेरसमुहुत्ता राइ' त्ति मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वम्, एवं सर्वत्र. 'सोलसमहुत्ते दिवसे' त्ति द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले षोडशमुहूर्तो दिवसो भवति. 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' त्ति द्विनवतितममण्डलार्धे वर्तमाने सूर्ये. 'चोदसमहुत्ते दिवसे ' त्ति. द्वाविंशत्युत्तरशततममण्डले. 'तेरसमुहत्ते दिवसे' ति सार्धद्विपञ्चाशदुत्तरशततमे मण्डले. 'बारसमुहत्ते दिवसे 'त्ति यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्ये इत्यर्थः. २. तेमा पहेला उद्देशक संबंधे कांइक विवरीए छीर-[ 'सूरिय " तिबे सूर्यो, कारण के जंबूद्वीपमां बे ज सूर्यो छे. [ उदीणपादणं' बेसू, ति] उत्तर दिशानी पासेनो प्रदेश ते उदीचीन अने पूर्व दिशानी पासेनो प्रदेश ते प्राचीन-उत्तर अने पूर्व दिशानी वचेनो भाग-ईशान खूणों. [ उगच्छ ' ति] त्यां क्रमपूर्वक उगीने, [ 'पाईणदाहिणं' ति] पूर्व अने दक्षिण दिशानी वचेना भागे-अमि खूणे, ['आगच्छंति' ति] आवे छे-क्रमपूर्वक ज आथमे छे. 'अमुक समये सूर्य उगे छे अने अमुक समये सूर्य आथमे छे' ए व्यवहार मात्र लोकोनी मरजीथी ज उगवर उपज्यो छे. कारण के समग्र भूमंडळ उपर सूर्यने उगवानो अने आथमवानो समय नियत नथी. खरी रीते तो सूर्यो लोकोनी समक्ष हमेशा हाजर ज छे. पण ज्यारे कोइ पण जातनुं सूर्यनी आई आंतरं आवी जाय छे त्यारे अमुक देशना लोको तेने जोइ शकता नथी माटे तेओ सूर्य आथम्यो छे' एवो व्यवहार करे छे अने ज्यारे ते आंतरं नथी होतुं त्यारे अमुक देशना लोको सूर्यने जोइ शके छे माटे तेओ । सूर्य उग्यो छ । एवो व्यवहार करे छ अर्थात् मात्र जोनारा लोकोनी नजरथी ज सूर्यने उगवानो अने आथमवानो ब्यवहार छे-बीजं कांइ नथी. कह्यु छ के"जेम जेम समये समये सुर्य आगळ संचरे छे-आकाशमां गति करे छे-तेम तेम आ तरफ पण रात्री थाय छे ए वात चोक्कस छे" "अने एम छ माटे-सूर्यनी गति उपर ज उगवा अने आथमवानो व्यवहार निर्भर छे माटे-मनुष्योने हिसावे उगईं अने आथमवु ए बन्ने क्रियाओ अनियत छे. कारण के पोताना देशना भेदने लीधे कोइ, कोइ पण प्रकारनो व्यवहार तो करे ज छे " " एकवार ज क्रमवडे बधाओने भद्रमुहूर्त निर्देश्यो (2) छे अने केटलाकोने तो ते अत्यारे पण छे-जेओने सूर्य विषयप्रमाण छ (2) " इत्यादि. सूर्य चारे दिशाओमां गति करे छे-आकाशमां सूर्य बधी दिशाओमा फरे छे, ए वात उपरना मूळ सूत्रथी जणावी छे. जे लोको एम माने छे के “ सूर्य पश्चिम तरफना दरियामा पेसीने, पाताळमां . जइने फरीने पूर्व तरफना समुद्र उपर उगे छे " ए मतने उपरतुं मूळ सूत्र ( सूर्यनी चारे तरफ धती गतिनुं सूचक सूत्र ) निषेधे छे. शं०-उपरना म सत्रमा जणाव्यं ते रीते विचारतां एम स्पष्ट प्रतीत थाय छे के, सूर्य चारे दिशामां गति करे छे अने ज्यारे एम छे तो पछी तेनो प्रकाश हमेशा कायम फेलाया करे छे ए वात तो निर्विवाद थइ शके छ तो पछी क्याय रात्री अने क्यांय दिवस एवो विभाग जोवामां आवे छे ते केम बनी शकशे? उपरना कथन प्रमाणे तो हमेशा सघळे ठेकाणे दिवस ज रहेवो जोइए. एम छतां तेम थतुं नथी तेनु शुं कारण ? समा०-जो के सूर्य बधी समाधान. दिशाओमां गति कर्या करे छे तो पण तेनो प्रकाश मर्यादित छे-तेनो प्रकाश अमुक हद सुधी जाय अने वधारे न जाय ए रीते नियत छे-माटे जगतमा अनुभवातो रात अने दिवसनो व्यवहार बाधारहित छ अर्थात् जेटली हद सुधी सूर्यनो प्रकाश जेटला बखत सुधी पहोंचे तेटली हदमां लेटला वखत सुधी दिवस अने बाकीनी हदमा तेटला वखत सुधी रात रहे ए व्यवहार, सूर्यनो प्रकाश मर्यादित होवाथी बराबर छ अने ए ज वातने क्षेत्रना भेदपूर्वक दर्शावता कहे छे के-[ ' जया णं' इत्यादि.] जगतमां बे सूर्यनी हाजरी होवाथी एक ज वखते बे दिशामा दिवस होवानुं जणाव्युं छे. शै०--जेम एक चोरस के गोळ पदार्थ होय, हवे जो आपणे तेना उपरना अडधा भागने उत्तरार्ध अने हेठळना अडधा भागने शंका, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.

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