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३:- उद्देशक १.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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अनमाजेव सूर्यामदेवनी वक्तव्यता कही छे तेन न अहीं ईशान इंद्रनी वक्तव्यता कवी. ते वन्यता क्यां सुधी कद्देची तो कहे छे के, ['जाब राज दिव्यं इत] ते वक्तव्यतानो को अर्थ आवो सुधर्मा सभामां, ईशान नामना सिंहासनमां बेसी देवेंद्र देवराज ईशान, मोटा अखंड नाटक वगेरेना शब्दवडे दिव्य अने भोगवया योग्य भोगोने भोगवतो विहरे छे. ते ईशानेंद्र त्यां एकलो नथी पण परिवारसहित बेठो छे. तेनो
उपर जगावेला नंदीसूत्रवाळा उलेखमां बराबर क्रमवार ए बारे सूत्रोनां नामो आपेलां छे, परंतु तेमांना केटांक कालिक श्रुत तरीके अने केटलांक उत्कालिक भुत तरीके, उपांग तरीके तो नहि ज. [ए नामोना विशेष विवेचन माटे नंदीमूत्रने जोई लेवानी जरूर छे. जे जे नामो उपर अंको लगाड्या के ते ए उपांगनां नामो छे. बळी समवायांग (जूओ० भ० प्र० सं० पृ० ९-१० ) सूत्रमां ज्यां बारमा समवायनो उल्लेख करेलो छे त्यां घणा खरा बार बार पदार्थांनी नोंध करी छे, किंतु आ वार उपांगोनुं नाम पण लीधुं नथी. मात्र जाणवानी खातर ज त्यांनी नोंधनो केटलोक भाग नीचे आपेलो छे:
बारमाओ पन्नताओ. २ दुबो २.xxx सारा पुढची दुवालस नामजा पण्णत्ता ५ तेसि णं देवाणं वारसहिं वाससहस्सेहिं थाहार समुप्पज्जइ. – समवायांग पृ० २१ (ख)
था प्रकारे आ बारमा सगवायना प्रकरणमां घणा घणा वार वार पदार्थोंनी नोंध करी छे, पण क्यांय 'उपांगो बार छे' एम जणान्युं नथी. किंतु ए सूत्रमां पण अन्यत्र आ प्रमाणे तो स्पष्टपणे सूचव्युं छे केः
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पातंजावरे, स मनाए वापसी, जावाधम्मक हाओ वासगदसाओ, अंतगदाओ अगुताइयगाओ पहारा विबाग, दिडवाए समवाय
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१०६ (स)
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अश्रोत् समवायांग सूत्रमां पण प्रसंग होवा छतां उपांगोनी संख्या तेम ज तेनो पूर्वोक्त अनुक्रम जणाव्यो नथी.. वळी कुमारपाळना समसमयी अने बेगनादी पोताना कोशमां अग्यारे अंगोमा भने चोदे पूर्वनां नामो तथा अर्थी आया छे (जुओकाण्ड १५४-१५८ १५९-१६०-१६१-१६२) किंतु आ उपांगोना क्रमिक उल्लेखने तेमां संभारवामां आव्यो नथी. जो के मूळमां अने टीकामां “साङ्गोपाङ्गानि अज्ञानि" मूळसापालिकादिभिर्त सोपाशानि टीका. एनी सामान्य करी है, किंतु अने तेनां नामो अनुक्रमे भा एवो स्पष्ट उल्लेख तो कर्यो ज नथी - समवायांग सूत्रमां उपांगो वा तेनी संख्यानी नोध करी नथी. मात्र अंगो, तेनी संख्या अने तेमां आवेला विषयो वर्णवेळ छे. नंदीसूक्ष्मां पण तेम ज छे, मात्र तेमां उपांग तरीके जणावाता ए वारे ग्रंथोनां नामो नाघेलां छे, पण उपांग तरीके नहि. एथी इतिहास एम कल्पी के खरो के, ए वारे ग्रंथोनी उपांग तरीकेनी अने तेनी क्रमिक संख्यानी कल्पना प्रायः अवीचीन होय. कारण के, ए ग्रंथोने उपांगरूपे सूचवता जे मीना (एना उम एक श्रीमती बीजो तस्वानो (०६४ अमदाबाद ) भने श्रीको प्रथम जगावेली चिनी टीकानो श्रीहीर विजयजीना समयनो-एम प्रण उठेखो मजे के) जे बीजो लेख तत्त्वार्थमि नपाएको तेम तो "राजवेन की औपपातिक-आदीनि एम सखेलं एटले आगळ जणावेला अनुकनिक उद्यान के उपनाम सीधी प्रथम गणाम् छे रोने आ वृद्धि भी जगाये के भने बीजानामने पहले बनाये छे. ए प म उनी कल्पनाने शिपाया जे थे. मी दिगंबर संप्रदायमा (राजदार्तिक पृ० ४९ थी ५४ सू० २० ) ज्यां श्रुतज्ञान अने तेना भेद प्रभेोनो सविस्तर निर्देश करेलो छे त्यां उपांग नामक भेदनो वा तेनी संख्यानो देश पण उल्लेख नधी मन तेमज तेओना तस्कंध नामना नाम सविस्तर न होना छतां उपर जानेको उपांगोनो पा लेना अनुक्रमनोउनी मळतो. अने आ रीते आगळ जणावेली इतिहासनी कल्पना कदाच खरी पण पडी शके.
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* राजीयनुं प्राकृत नाम 'रापणीय' छे. ये व्याकरणी विचार करत 'नीय' नुं तद्दन सीधी रीते, 'पगीय' या छे. प्राकृतमां ' प्रश्न ' शब्दनां ' पण्ह' अने 'पसिण एवा बे रूपो बने छे तेथी ' राजप्रश्नीय' शब्दनुं प्राकृत रूप ' रायपण्हीय' वा 'रायपसिणीय थवं शक्य लागे छे. बळी तत्त्वार्थवृत्तिना उल्लेखानुसार आगळ जणाव्या प्रमाणे आनुं संस्कृत नाम 'राजप्रसेनकीय ' मालूम पडे छे अने ए नामनुं बराबर प्राकृत ' रायपसेणईअ ' थवा जाय छे. आ प्रकारे वे जातनेा नामोल्लेख मळवाथी एवो चोक्कसं निर्णय थई शकतो नथी के, राजप्रश्नीय बराबर छे के राजप्रमेनीय बराबर ए मां राजा प्रदेशीने लगती हकीकत आने के एथी कदाच राजप्रश्नमधिकृत्य कृतं पार्थ राजधानीम् एवी व्युत्पति आधारे ' राजप्रश्नीय' नाम वराबर होय. आ संबंधे विचार करतां एक जर्मन पंडित श्रीयुत वेवर महाशय जणावे छे के, ' राजप्रश्नीय ' नामने बदले राजप्रदेशीय ' नाम आ सूत्रने बराबर लागु थाय छे. कारण के, ए नाम, एना विषयने अनुकूळ होवाथी अन्वर्थ-नाम छे. आथी कदाच एम पण कल्पी शकाय खरं के, ‘राजप्रदेशीय ' ना प्राकृतरूप 'रायपएतीय' ने बदले भ्रमवशे 'रायपसेणीय' थई गयुं होय अने परापूर्वथी एवं ए ज चाल्युं आवतुं होय.
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आचार्य सीरम वा प्रामाणिक
एवं एक भोस धोरण घडी
धरणीत त भने उपस्थिविरप्रणीत
छे. ए विषे तेओए आवश्यकवृत्तिमां जणाव्युं छे के:
१ भिक्षुओनी प्रतिमाओ वार छे. २ संभोग बार प्रकारनो छे. ३ कृतिकारवाई ४ पाभारा पृथिवीमा पार नाम छे. ५ ते देवोने बार हजार वर्ष पछी खावानो अभिलाष थाय छे.
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गणधरकृतम् आधारादि अनहिं तु स्वरितम्"
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"गणिपिटक, द्वादश अंगरूप छे, जेम के : - आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रइति ज्ञाताधर्म या उपायकदा अंतकमा अनुस पपातिकदशा व्याकरण, विपाक अने दृष्टिवाद." ',
"गणदेव
द्वय पुनः
स्थविरैः + विरचितं तद् अनङ्गप्रविष्टम् " – ( नन्दीटीका, मलयगिरीया पृ०
२०३ स० )
"गगर-वेरकयं वा ( ५५० ) - (विशेषायकटकामधारीयाश्रुतज्ञानविचार )
के
आवश्यकादि . - ( आ० वृ० पृ० २५ स० )
उपरनी हकीकतने आचार्य श्रीमलयगिरि अने आचार्य श्रीमलधारी विगेरे पण टेको आपे छे. ए विषे तेओ आ प्रमाणे जणावे छे के :
" जे श्रुत गगधरकृत छे ते अंगप्रविष्ट है-अने जे, स्थविरकृत छे ते अंग सिवायनुं छे.”
" अंगगत श्रुत गणधरकृत छे अने ते सिवायनुं स्थविरकृत छे."
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" जे श्रुत अंगप्रविष्ट छे ते गणधरकृत छे अने जे, ते सिवायनुं छे ते स्थविर
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