Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका [ मङ्गलाचरणम् ] तत्त्वद्रवां भगवतीकमलालिमेताम् ,
आत्मानुभूतिमकरन्दततिप्रजुष्टाम् । नित्यं नवां सुखसवां भविनो मिलिन्दा,
- आस्वादयन्ति नितरां सततं सुचित्ताः॥६॥ किलोलें करती है अन्यसरोवरों में नहीं। मैत्रीभाव मनमें ही अपना स्थान बनाता है अन्य इन्द्रियों में नहीं तो जैसे यह एक स्वामाविक बात है, उसी प्रकारसे यह भी एक प्राकृतिक बात है कि प्रभुकी देशनारूप यह भगवती रूप भावश्रुत भी भव्योंके ही हृदयके अंदर समाता है-अभव्योंके नहीं।५।। ___ अन्वयार्थ-(तत्त्वद्रवां)जीवादिक तत्त्वरूप रसको उत्पन्न करनेवाली अर्थात् उसके वास्तविक स्वरूपको प्रकट करनेवाली (आत्मानुभूतिमकरन्दततिप्रजुष्टाम) तथा आत्माकी अनुभूतिरूप पराग(पुष्परज)के पुंजसे युक्तऐसी (एतां) इस (भगवतीकमलालिम्) भगवतीरूप कमलपंक्तिका जो कि (नित्यं नवां) हमेश नवीन ही बनी रहती है, और (सुखसवां) अनंत अव्यायाध सुखको उत्पन्न करती है उसको जो (भविनो मिलिन्दा) भव्य जीवरूप भ्रमर (सततं नितरां आस्वादयन्ति) निरन्तर इच्छानुसार अत्यन्त आस्वादन करते हैं वे (सुचित्ताः) निर्मल चित्त हो जाते हैं ।
विशेषार्थ-कमलोंके मकरन्दका पान करनेवाले भ्रमर सुचित्त (निर्मल चित्त ) न होकर मदोन्मत्त हो जाया करते हैं-यह एक प्रसिद्ध बात है આનંદ કરે છે–અન્ય સરેવરમાં નહીં, મૈત્રીભાવ મનમાં જ સ્થાન જમાવે છે. અન્ય ઈન્દ્રિમાં નહીં, આ વાત જેમ સ્વાભાવિક ગણાય છે તેમ એ પણ એક સ્વાભાવિક વાત છે કે પ્રભુની દેશનારૂપ આ ભગવતીરૂપ ભાવકૃત પણ ભવ્ય જનાજ હૃદયમાં સ્થાન જમાવે છે–અભવ્યનાં હૃદયમાં નહીં પણ ___मन्वयार्थ -(तत्त्वद्रवां) mes तत्१३५ २सने उत्पन्न ४२नारी भेट तेना वास्तवि४२१३५ने तावना (आत्मानुभूतिमकरन्दततिप्रजुष्टाम् ) तथा २॥ मानी अनुभूति३५ ५२।(५०५२४)थी युजत मेवी (एता) PAL (भगवतीकमलालिम् ) मावती३५ ४७५ति-3 (नित्यं नवां) नित्य नवीन सय ४२ छ, भने २ (सुखसवां) २५०यामा सुमने उत्पन्न ४२ छ, तेनु (भविनो मिलिन्दाः) २ लव्य ३५ भ्रम२ (सततं नितरां आस्वादयन्ति) निरंतर ४२छानुसार सत्यत मास्वाहन ४२ छ तेसो (सुचित्ताः) नि चित्तवानी जय छे.
વિશેષાર્થ–કમળાના મકરંદ ( પુષ્પરસ)નું પાન કરનારા ભ્રમરે સુચિત્ત (निम चित्तपात) यता नथी ५५] भोन्मत्त थाय छे, मे पात प्रसिद्ध छ,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧