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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
गुरु को वन्दना कर रहा था, कोई धर्म-कथा कह रहा था, कोई श्रुतका उद्देश अनुसन्धान कर रहा था, कोई अनुज्ञा दे रहा था और कोई तत्त्व कह रहा था । सार्थवाह ने सबसे पहले आचार्य महाराज को और पीछे अनुक्रम से अन्यान्य मुनियों को वंदना किया । उन्होंने उसे पाप नाश करनेवाला “धर्मलाभ” दिया । इसके बाद-3 - आचार्य के चरण-कमलों के पास, राजहंस की तरह, बैठकर सार्थवाह ने आनन्द के साथ, नीचे लिखी बातें कहनी आरम्भ कीं :-- क्षमा प्रार्थना |
“हे भगवन् ! जिस समय मैंने आप को मेरे साथ आने के लिये कहा था, उस समय मैंने शरद ऋतुके मेघ की गर्जना के समान मिथ्या संभ्रम दिखाया था; क्योंकि उस दिन से आजतक न तो मैं आपको वन्दना करने आया और न अन्नपान तथा वस्त्रादिक से आपका सत्कार हो किया I जाग्रतावस्था में रहते हुए भी, सुप्तावस्था में रहने वाले के समान, मैंने यह क्या किया ? मैंने आपकी अवज्ञा की और अपना वचन भङ्ग किया । इसलिए हे महाराज! आप मेरे इस प्रमादाचरण के लिए मुझे क्षमा प्रदान कीजिये । महात्मा लोग सब कुछ सहनेसे ही हमेशा "सर्वसह” * की उपमा को पाये हुए हैं
* पृथ्वी को "सब सहनी " इसीलिये कहते हैं, कि उसे संसार खूंदता है और उसपर अनेक प्रकार के अत्याचार करता है; परन्तु वह चुपचाप सब सहती है । महापुरुष भी पृथ्वी की तरह ही सब कुछ सहनेवाले होते हैं, इससे उन्हें "सर्वसह" की उपमा मिली है ।