Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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उद्यम उदार दुख-दोष को हरनहार, उद्यम में सिद्धि वह उद्यम ही सार है। उद्यम बिना न कहूँ भावी भली होनहार, उद्यम को साधि भव्य गए भवपार हैं। उद्यम के उद्यमी कहाए भवि जीव तातें, उद्यम ही कीजे कियो चाहे जो उद्धार है। (ज्ञानदर्पण, १४१ )
यथार्थ में पुरुषार्थ वही है जो साध्य की सिद्धि करा देवे । साध्य की सिद्धि पर के लक्ष से तथा पर के साधन से कदापि नहीं हो सकती है। स्वभाव का लक्ष त्रिकाली सहज नियत स्वभाव को समझे बिना नहीं हो सकता । अतः नियति और पुरुषार्थ को सापेक्ष रूप से मानने में कोई विरोध नहीं है। इसी तथ्य को पं० दीपचन्द कासलीवाल सांकेतिक भाषा में इस प्रकार कहते हैं
सकल उपाधि में समाधि जो सरूप जाने, जग की जुगति माहिं मुनिजन कहतु हैं। ज्ञानमई भूमि चढि होई के अकंप रहे,
साधक ह सिद्ध तेई थिर हवै रहतु हैं ।। (ज्ञानदर्पण, १४३)
वास्तव में अपने स्वभाव में लीन रहना - यही यथार्थ पुरुषार्थ है। जो नियत स्वभाव को स्वीकार नहीं करेगा, तो वह कैसे अपने में स्थिर रह सकता है? स्थिरता तो ध्रुव के आश्रय से ही आ सकती है । अस्थिर के आलम्बन से स्थिरता कैसे ही सकती है? अतः त्रैकालिक ध्रुव निष्क्रिय चिन्मात्र ज्ञायक ही परम तत्त्व है। ऐसे चिदानन्द देव के आश्रय से ही निज शुद्धात्मा की उपलब्धि हो सकती है। इसलिये निज स्वभाव को साधना ही सबसे महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ है। कवि के शब्दों मेंएक अभिराम जो अनंत गुणधाम महा.
है |
सुद्ध चिदजोति के सुभाव को भरतु अनुभौ प्रसाद तैं अखंड पर देखियतु,
अनुभौ प्रसाद मोक्षवधू को वस्तु है ।। (ज्ञानदर्पण, १४४ )
अपने पद तथा स्वभाव के अनुसार चलना ही पुरुषार्थ है । यद्यपि आत्मा में अनन्त गुण हैं, किन्तु मोक्ष मार्ग में ज्ञान की ही मुख्यता है।
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