Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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सकल पदारथ को सकल विशेष भाव, तिन को लखाव करि ज्ञान जोति जगी है। आतमीक लच्छन की सकति अनंत जेती, जुगपद जानिये को महा अति वगी' है। सहज सुरत सुसंवेद ही में आनंद की, सुधाधार होइ सही जाके परमरस पगी है। परम प्रमाण जाको केवल अखंड ज्ञान, महिमा अनंत 'दीप' सकति सरवगी' है ।।६८ ।। आतम अरूपी परदेस को प्रकास धरे, भयो ज्ञेयाकार उपयोग समलीन है। लक्षण है जाको ऐसो विमल सुभाव ताको, वस्तु सुद्धताई सब वाही के अधीन है। जथारथ भाव को लखाव लिए सदाकाल, द्रव्य-गुण-परजाय यह भेद तीन है। कहे 'दीपचंद' ऐसी स्वच्छ है सकति महा, सो ही जिय जाने जाके सुख की कमी न है।।६६ ।। अनंत असंख्य संख्य भाग वृद्धि होय जहां. संख्य सु असंख्य सु अनंतगुणी वृद्धि है।। एऊ षट् भेद वृद्धि निज परिणाम करे, लीन होइ हानि सो ही करे व्यक्त सिद्धि है। परणति आप की सरूप सो' न जाय कहूं, चिदानंद देव जाके यहै महा ऋद्धि है। सकति अगुरुलघु महिमा अपार जाकी, कहै 'दीपचंद' लखे सब ही समृद्धि है। ७० ।।
१ उछली है, २ मुद्रित पाठ है-फरस ?). ३ सर्वज्ञत्वशक्ति, ४ उसी के. ५ से, ६ यही. ७ अगुरुलघुत्वशक्ति
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