Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust

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Page 195
________________ केउ सार जानि के अचार ही को सेवे हैं।। केउ बाद जीति के रिझावे जाय राजन' को, केउ दै अजाची धन काहू कौन लेते हैं। ऐसो तो अज्ञानता में चिदानंद पावे नाहि, ब्रह्मज्ञान जाने तो स्वरूप आप बेवे हैं।1८६।। कथित जिनेन्द्र जाको सकल रहसि यह, शुद्ध निजरूप उपादेय लखि लीजिये। स्वसंवेद ज्ञान अमलान है अखंड रूप अनुभौ अनूप सुधारस नित पीजिये।। आतम स्वरूप गुण धारे है अनंतरूप, जामें घरि आयो पररूप तजि दीजिये। ऐसे शिव साधक वै साधि शिवथान महा, अजर-अमर-अज होय सदा जीजिये ।।६०!! दोहा यह अनूप उपदेश करि, कीनो है उपकार। 'दीप' कहे लखि भविकजन. पावत पद अविकार ।।११।। इति १ राजाओं को. २ स्वसंवेदन, आत्मानुभव करते हैं. १६८

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