Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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चिंतन
अर्थ- जो ज्ञान, लक्षण भेदरूप से ज्ञेयों का मनन, करता है, उस के मन अथवा चित्त संज्ञा दी गई। हे चतुर ज्ञानी पुरुषो! देखो।
पुनः
ज्ञान दर्शन धारा,
मन इन्द्री पद इम होत ।
भी इन नाम उपचार से, कहे देह अंग के गोत | | १४ । ।
अर्थ - ज्ञान - दर्शनधारा को इस प्रकार मन, इन्द्रिय पद प्राप्त हुआ। फिर देहके अंगों के ये ही नाम उपचार से कहे गये हैं
पुनः
यहु बुद्धि मिथ्याती जीव के, होई क्षयोपशम रूप । पै स्वपर भेद लखे नहीं, तातैं निज रवि देखन धूप ||१६||
अर्थ - मिथ्यात्वी जीवके यह बुद्धि क्षयोपशम रूप होती है. परन्तु स्वपर का मेद नहीं देखती है, अतः निज ज्ञानसूर्य और उसके प्रकाश को नहीं देख पाती है।
पुनः
सम्यग्दृष्टि जीव के, बुध धार सम्यग् सदीव । स्वपर जाने भेद स्यों रहे भिन्न ज्ञायक सुकीय | | १७ ||
अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीवकी बुद्धि धारा सदा ही सम्यक् होती है। स्वपर भेद जानने से वह सब से भिन्न ज्ञायक ही रहता है।
चौपाई
मन इन्दी तब ही लों भाव, भिन्न-भिन्न साधे ज्ञेय को ठांय । सब मिलि साधे जब इक रूप, तब मन इंद्री का नहीं रूप ।। १६ ।।
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