Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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निवास करता हूं। जिस क्षण में स्वयं को ही देखता हूं, उसी क्षण मैं चैतन्यराजा हूं। इस ही पुद्गल पिण्ड में, वहै जो देखन जाननहार। यह मैं यह मैं यह जो कुछ देखन जाननहार ।।७।।
अर्थ-इस ही पुदगल पिंड में वह जो देखने, जानने वाला जो कुछ है, वहीं मैं हूं, वही मैं हूं।
यह मैं, यह मैं, मैं यही, घट बीच देखत जानत भाव | सही मैं सही मैं सही, यह देखन जानन ठाव ।।२८।।
अर्थ-अंतर में जो देखने-जानने वाला भाव है, यही मैं हूं, मैं ही हूं। यह दर्शक-ज्ञायक स्थान (पिंड) निश्चित ही मैं हूं।
अथ चारित्रहूं तिष्ठ रह्यो हूं ही विषे, जब इन पर से कैसा मेल। राजा उठि अंदर गयो, तब इस सभा से कैसो खेल।।२६ ।।
अर्थ-मैं मुझ में ही ठहरा हूँ, तब इस पर से मेरा संबंध कैसा? जब राजा उठ कर अंदर गया, तब सभा का नाटक कैसा? क्योंकि खेल तो सब बाहर में हो रहा है।
प्रभुता निजघर रहे, दुःख नीचता पर के गेह। यह प्रत्यक्ष रीति विचारिके, रहिये निज चेतन गेह||३०||
अर्थ-अपने घर में प्रभुता रहती है और पर के घर दुःख और नीचता रहती है। यह प्रत्यक्ष रीति विचार कर निज चेतन गृह में रहना चाहिये।
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