Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust

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Page 201
________________ . अर्थ-जब तक (उपयोगके भेद) भिन्न-भिन्न ज्ञेय-स्थान का साधन करते हैं, तब तक ही मन इन्द्रिय भाव है, जब सर्व उपयोग एक स्वरूप का साधन करता है, तब उसका मन-इन्द्रियरूप नहीं रहता। इक पद साधन को किय मेल, तब मन इंद्री का नहीं खेल।। तातें मन इन्द्री भेद पद नाम, है अतीन्द्री एकमेक परनाम।।१६।। अर्थ-एक (स्व) पद साधने को जब उपयोग के मेद मिल गये (उपयोग सर्व ओर से हटकर एकरूप अभेद हुआ), तब मन, इन्द्रिय का खेल, नाटक नष्ट हो गया । अतः मन, इन्द्रिय उपयोग के भेद के नाम हैं। अतीन्द्रिय परिणाम तो एक अभेद परिणाम है। स्व अनुभव छन विौं, मिले सब बुद्धि परनाम। ताः स्य अनुभव अतींदी, भयो छद्मस्थी को नाम।।२०।। अर्थ-स्व अनुभव क्षण में सब बुद्धि परिणाम मिलकर प्रवर्तते हैं. अतः स्व अनुभवका नाम छद्मस्थ के अतीन्द्रिय कहलाता है। जा विधि तैं मन इन्द्रिय होत, ता विधि स्यों भए अभाव । तब तिन ही परनाम को, मन इन्द्री पद कहा बताव ।।२१।। अर्थ-मन और इन्द्रिय इस विधि से (उपयोग भेदसे) होते हैं और उस विधि से (अभेद उपयोग से) मेद, अभाव हुए, तब उन परिणामों को मन इन्द्रिय पद कैसा? सम्यग् बुद्धि परवाह, क्षणरूप मझ क्षण रूप तट। पै रूप छांडि न जाह, यह सम्यक्त्चता को महातम।।२२।। १७४

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