Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust

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Page 196
________________ परिशिष्ट अथ आत्मावलोकन स्तोत्र गुण-गुण की सुभाव विभावता, लखियो दृष्टि निहार। पै आन आन में न मिले, होसी ज्ञान विथार।।१।। अर्थ--प्रत्येक गुण को स्वभाव और विभाव की दृष्टि से परख कर देखने से यह निश्चय होता है कि अन्य अन्य में नहीं मिलता, इस समझ से तुम्हारा ज्ञान निर्मल तथा विस्तृत होगा। सब रहस्य या ग्रन्थ को, निरखो चित्त देय मित्त। चरन स्यों जिय मलिन होय, चरन स्यों पवित्त ।।२।। अर्थ-हे मित्र! इस ग्रन्थ का रहस्य चित्त लगा कर समझना । जीव आचरण, चारित्र से ही मलिन होता है और आचरण चारित्र से ही पवित्र होता है। चरन उलटें प्रभु समल, सुलटे चरन सब निर्मल होति। उलट चरन संसार है, सुलट परम की ज्योति।।३।। ___अर्थ-चारित्र उलटा (मिथ्या) होने से प्रभु (जीव) मलिन होता है, चारित्र सुलटा-सम्यक् होने से सब निर्मल हो जाते हैं। मिथ्याचारित्र संसार है और सम्यकचारित्र परमज्योति अर्थात् मोक्ष वस्तु सिद्ध ज्यों चरन सिद्ध है, चरन सिद्धि सो वस्तु सिद्धि। समल चरण तव रंक-सा, चरन शुद्ध अनंती ऋद्धि ।।४।। १६६

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