Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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रहसि जिनेन्द्रजी के धरम को जाने नाहिं, मान ही बड़ाई काजि लछमी को त्यागी है। विधि न धरम जाने गुण को न माने मूढ, आज्ञा भंग क्रिया जासश्रीति अति पागी है। आतमीक रुचि करे मारग प्रभाव तासों, करे न सनेह शठ बड़ो ही अमागी है।।४५।। गुण को ग्रहण किये गुण बढवारी होई, गुण बिन माने गुणहानि ही बखानिये। गुणी जन होइ सो तो गुण को ही चाहतु है, दुष्ट चाहे औगुण को ताको धिक मानिये।। स्तन' में क्षीर तजि पीवत रुधिर जोंक, ऐसो है स्वभाव जाको कैसे मलो जानिये। यातें गुणग्राही होइ तजि दीजे दुष्ट वाणि, गुण को ही मानि-मानि धरम को ठानिये ।।४६ ।। धरम की देशना ते गुण देइ सज्जन को, दीनन को धन-मन-धरम में लावे है। चेतन की चरचा चित में सुहावे जाको, मारग प्रभाव जिनराजजी को भावे है।। अति ही उदार उर अध्यातम भावना है, स्यादवाद भेद लिए ग्रंथ को बणावे है। ऐसो गुणवान देखि सजन हरष धरे, दुर्जन के हिये हित नैक हू न आवे है।४७।। धन ही को सार जानि गुण की निमानि करे, मोह सेती' मान धरे चाह है बड़ाई की।
१ रहस्य, मर्म. २ थन. २ निरादर, अवमानना. ३ से. के द्वारा
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