Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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तिया को तो धन सौंपे सुत को सब घर, धरम में लालि-पालि' नेक हूँ न भावे है ।। लौकिक बड़ाई काजि खरचे हजारों धन, चाह है बड़ाई की न धरम सुहावे है। मूढ़न को मूढ़ महा रूढ़ि ही में विधि जानें, सांचौं न पिछाने कहो कैसे सुख पावे है ।।१।। माया की मरोर ही तैं टेढ़ो-टेढो पांव धरे, गरव को खारि' नहीं नरमी गहतु है। विनै को न भेद जाने विधि ना पिछाने मूढ़, अरुझ्यो ड़ाई में न धरम लहत है। चेतना निधान को विधान जिन सेती, पावे तन हूं सो ईर्ष्या अज्ञानी यो महतु है। रोजगारी करके समीप राख्यो चाहे आप, याहू से अधिक बड़ो पाप को कहतु है । ५२!! गुणवंत देखि अति उठि ठाडो होइ आप, सनमुख जाय सिंहासन परि धारे है। सेवा अति करे अरु दास तन धरे महा विनै रूप बैन भक्तिभाव को बढारे है।। प्रभुता जनार्व जगि महिमा बढावे जाकी, चाहि जिय में अंग सेवा को संभारे है। भक्ति अंग ऐसो कोउ करे पुण्यकारणि, जो पुण्य कोउ पावे अरु दुख-दोष टारे है।५३ प्रति परिपूरण तैं रोम-रोम हरषित द्वै, चित चाहे बार-बार पेम रस भरयो है।
१ लालन-पालन, २ सत्यार्थ, वस्तु-स्वरूप, ३ तीव्रता. ४ विनय, ५ उलझा हुआ ४ बढ़ाने वाले, ५ मुद्रित पाठ है-चाहिजि मैं असे. ६ मुद्रित पाठ 'येम' रस
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