Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust

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Page 192
________________ ताको गुण मानि ताकी सेवा करे भाव सों। आतमी तत्त्व तासों प्राप्ति बै ताही करि, अमर स्वपद वै है सहज लखाव सों।। ऐसो गुण ताको मन गिणे नांहि नेक ह है, महंत कहावे कृतघनी के कहाव सों। सोई धन्य जगत में सार उपकार माने, आप हित करे ताको पूजत सहाव' सों ।।१०।। जासों हित पावे ताको आश्रित ही राख्यो चाहे, मान की मरोर में बडाई चाहे आप की। दाम' ही में राम जाने और की न बात माने, हित न पिछाने रीति बाढ़े भवताप की।। जाके उपदेश सों अनूपम स्वरूप पावें, ताको अपमाने थिति बांधे महापाप की। औगुण' गहिया भवजाल के बंधैया वह, कैसे रीति राखे उपकारी के मिलाप की ||१|| कह्यो है अनंतवार सार है स्वपद महा, ताको बतावे सो ही सांची उपकारी है। ताको गुण माने जो तो सांचि वै स्वरूप सेती, ऐसी रीति जाने जाकी समझि ही भारी है ।। नय व्यवहार ही में कह्यो है कथन एतो, रीझि में न विकलप विधि को उघारी है। ऐसो उपदेश सार सुणि न विकार गहे. सो ही गुणवान आप आप ही धिकारी है।।८२|| जाके गुण चाहि हदै तो गुण को गहिया होय, १ स्वमाव. २ रूपया-पैसा. ३ निरादर, अपमान करने से, ४ अवगुण, दोष. ५ मुद्रित पाठ 'बहिया है.६ उत्कृष्ट, ७ मोहित ८ धिक्कारी १६५

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