Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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ज्ञानसरूप तिहूं जगभूप, बण्यो" चिदरूप है ज्योतिप्रकासी । सरूप विचारि लखे यह सन्त, अनूप अनादि है ब्रह्मविलासी । । १५ ।।
सवैया
नहीं जहां क्रोध मान माया लोभ है कषाय, जगत को जाल जहां नहीं दरसाय है । करम कलेस परवेस' नहीं पाइयत, जहां भव-भोग को संजोग न लखाय है । जहां लोक वेद तिया पुरुष नपुंसक ये बाल वृद्ध जुवान भेद कोउ नहीं थाय है । काल न कलंक फोउ जहां प्रतिवसतु है, केवल अखंड एक चिदानन्दराय है | | १६ | | जहां भव-भोग को विलास नहीं पाइयत, राग - दोष दोउ जहां भूलि हू* न आय है। जग उतपति जहां प्रश् न बताइयत, करम भरम सब दूरि ही रहाय है ।। साधन न साधना न काहू की अराधना है, निराबाध आप रूप आप थिर थाय है ।। सहज प्रकास जहां चेतना विलास लिये, केवल अखंड एक चिदानंदराय हैं | | १७ || मोह की मरोर को न जोर जहां भासतु है, नांहिं परकासतु है पर परकासना ।। करम कलोल जहां कोउ नहीं आवत है,
९ बना हुआ, सहज. २ प्रवेश ३ होता है, ४ भूल कर भी ५ प्रलय ६ स्थिर होता है, ७ मरोड़ ८ प्रकाशित होता है
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