Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust

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Page 175
________________ ऐसो है समाज राज विनासीक जानि तज्यो. साध्यो शिव आप पद पायो अविकारी है। अब तू विचारि निज निधि को संभारि सही, एक बार कह्यो सो ही यो हजारबारी है।।२३।। विविध अनेक भेद लिये महा भासतु है पुद्गलदरब रति तामें नाहिं कीजिये। चेतना चमतकार समैसार रूप' आप, चिदानन्द देव जामें सदा थिर हूजिये ।। पायो यह दाव' अब कीजिये लखाव आप, लहिये अनन्त सुख सुधारस पीजिये। दरसन ज्ञान आदि गुण हैं अनंत जाके, ऐसो परमातमा स्वभाव गहि लीजिये ।।२४।। राजकथा विषै भोग की रति कनकवश केउ धनधान पशु पालन करतु हैं। केउ अन्य सेवा मंत्र औषध अनेक विधि, केउ सुर नर मनरंजना धरतु हैं। केउ घर चिंता में न चिंता क्षण एक मांहि, ऐसे समै जाहि तेई भौदुख भरतु हैं। जग में बहुत ऐसे पावत स्वरूप को जे. तेई जन केउ शिवतिया को वरतु हैं ।।२५।। करम संजोग सेती धरि के विभाव नाट्यो, परजाय धरि-धरि पर ही में परयो है। अहं-ममकार करि भव-भव बांध्यो अति, राग-दोष भावन में दौरि-दौरि लग्यो है।। ज्ञानमई सार सो विकार रूप भयो यह १ शुद्धारमा स्वरूप. २ अवसर, ३ मुद्रित पाठ है-कनकनग. ४ भव-दुःख, १४८

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