Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust

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Page 174
________________ राग-दोष भाव करि बांधे भवभार है।। इंदिन के भोग सेती मन में उपाही भरे, अहंकार भाव ते न पावे भवपार है। ऐसो तो अनादि को अज्ञानी जग मांहि डोले, आप पद जाने सो तो लहे शिवसार है।।२०|| करम कलोलन की उठत झकोर भारी, याते अविकारी को न करत उपाव है। कहुं क्रोध करे कहुं महा अमिमान धरे, कहुं माया पगि लग्यो लोभ दरयाव है।। कहुं कामवशि चाहि करे मित कामिनी की, कहुं मोह धारणा ते होत मिथ्या भाव है। ऐसो तो अनादि लीनो स्वपर पिछानि अब, सहज समाधि में स्वरूप दरसाद है।।२१।। नौ निधान आदि देके चौदह रतन त्यागे, छियानवे हजार नारि छोडि दीनी छिन में। छहों खण्ड की विभूति त्यागि के विराग लियो, ममता नहीं कीनी भूलि' कहूं एक तिन में।। विश्व को चरित्र विनासीक लख्यो मन माहि, अविनाशी आप जान्यो जग्यो ज्ञान तिन में। याही जग मांहि ऐसे चक्रवर्ती है अनन्ते. विभौ तजि काज कियो तू वराक' किन में ।।२२।। कनक तुरंग गज चामर अनेक रथ, मंदर अनूप महा रूपवन्त नारी है। सिंहासन आभूषण देव आप सेवा करें, दीसे जग मांहि जाको पुण्य अति भारी है।। १ उमंग. २ कम का तीव्र उदय, ३ समुद्र ४ मुद्रित पाठ है-मुलि (मूलि), ५ वैभव, ६ बेचारा. दीन-हीन. ७ स्वर्ण १४७

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