Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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विषय ठगोरी' डारि महामोह ठग्यो है। तजि के उपाधि अब सहज समाधि धारि. हिये में अनूप जो स्वरूप ज्ञान जग्यो है।।२६ !। गति--गति मांहि पर आप मानि राग धरे, आप पुण्य-पाप ठानि भयो भववासी है। चेतना निधान अमलान है अखंड रूप, परम अनूप न पिछाने अविनासी है।। ऐसी परभावना तू करत अनादि आयो, अब आप पद जानि महासुखरासी है। देवन को देव तू ही आन सेव कहा करे, नैक निज ओर देखे सुख को विलासी है।।२७।। अहं नर अहं देव अहं धरे पर देव, अहं अभिमान यो अनादि धरि आयो है। अहंकार भाव तें न आप को लखाव कियो, पर ही में आपो मानि महादुख पायो है || कहुं भोग कहुं रोग कहुं सोग है वियोग, राग-दोष मई उपयोग अपनायो है। धरम अनंतगुणधारी अब आतमा को, अनुमौ अखंड करि श्रीगुरु दिखायो है ।।२८।। करिके विभाव भवभांवरि अनेक दीनी, आनंद को सिंधु चिदांनद नहीं जान्यो है। करम कलंक पंक कोउ नहीं जहां कहे, सदा अविनासी को लखाव नही आन्यो है।। गुणन को धाम अभिराम है अनूप महा, ऐसो पद त्यागि परभाव उर ठान्यो है। १ ठगर्न वाली. २ शोक, चिन्ता, ३ भव-भ्रमण, फेरे,
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