Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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कथा को कथन सोहू विकथा बखानिये । तीरथ करत बहु भेष को बणाये कहा, वरत-विधान कहा कीयाकांड हानि ! चिदानंद देव जाको अनुभौ न होय जोलों, तोलों सब करवो अकरवो ही मानिये ।।१७ ।। सुरतरु चिंतामणि कामधेनु पाये कहा. नौनिधान' पाये कछु तृष्णा न मिटावे है। सुर हू की संपति में बढ़े भोग भावना है, राग के बढावना में थिरता न पावे है।। करम के कारिज में कृतकृत्य कैसे होई, यातें निज मांहि ज्ञानी मन को लगावे है। पूज्य धन्य उत्तम परमपद धारी सोही, चिदानंद देव को अनंतसुख पावे है | १८ || महाभेष धारिके अलेख' को न पावे भेद, तप-ताप तपे न प्रताप आप लहे है। आन ही की आरति है ध्यान न स्वरूप धरे, पर ही की मानि में न जानि निज गहे है।। धन ही को ध्यावे न लखावे चिद लिखमी' को, भाव न विराग एक राग ही में फहे है। ऐसे है अनादि के अज्ञानी जग मांहि जो तो, निज ओर है तो अविनासी होय रहे है।।१६।। परपद धारणा निरंतर लगी ही रहे, आप पद केरी नाहिं करत संभार है। देह को सनेह धारि चाहे धन-कामिनी को,
१ नौ निधियाँ. २ अलक्ष्यपरमातमा, ३ चिन्ता, ४ चैतन्य लक्ष्मी, ५ फंसे हुए. ६ की (निजस्वभाव की)।
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