Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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यो ही साधि साधन को ज्ञान नाव बैठ करि. शुद्धभाव धारि भवसिंधु को तिरैया है।।६१|| यो ही यो निगोद में अनंतकाल वसि आयो, यो ही भयो थावर सु त्रस यो ही भयो है। यो ही ज्ञान-ध्यान मांहि यो ही कवि चातुरी में, चतुर हवै बैठो अरु यो ही सठ' थयो है।। यो ही कला सीखि के भयो महा कलाधारी, यो ही अविकारी अविकार जाको आयो है। यो ही निरफंद कहूं फंद को करैया यो ही, यो ही देव चिदानन्द ऐसे परणयो है ।।६२ ।।
दोहा यह (इस) अनादि संसार में, थे अनादि के जीव । पर पद ममता में फहे. उपज्यो अहित सदीव ।।३।। ता कारण लखि गुरु कहें, धरम वचन विसतार। ताहि भविक जन सरदहे, उतरे भवदधि पार ।।६४ ।। परम तत्त्व सरधा किये, समकित है है सार। सो ही मूल है धरम को, गहि भवि वै भवपार ||६५।। देव धरम गुरु तत्त्व की, सरधा करि व्यवहार। समकित यह शिव देतु है, परंपरा सुख धार ।।६६ ।। सहज धारि शिव साधिये, यो सद्गुरु उपदेस। अविनासी पद पाइये, सकल मिटे भव-क्लेस ।।६७ ।। साधन मुक्ति सरूप को, नय प्रमाणमय जानि। स्यादवाद को मूल यह, लखि साधकता आनि ।।६८ ।। गुण अनन्त निज रूप के, शकति अनन्त अपार । भेद लखे भवि मुक्ति सो, शिवपद पावे सार । ६६ ।। १ असानी, मूर्ख, २ फैसे, उलझे हुए. ३ सदा ही, ४ श्रद्धा करता है.
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