Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव आप ही को आप में जो, लखे सोही ज्ञानी सुख पावत अपार है। संज्ञा अरु संख्या सही लक्षण प्रयोजन को, आप में लखावे वह करे निरधार' है। आप ही प्रमाण प्रमेय भाव धारक है, आप षट्कारक ते जगत में सार है। आप ही की महिमा अनंतधा अनंतरूप, आप ही स्वरूप लखि लहे भवपार है । । ७३ ।। एक चिदमूरति स्वभाव ही को करता है, असंख्यात परदेशी गुण को निवासी है। जीव परणाम क्रिया करवे को कारण है, लोकालोक व्यापी ज्ञानभाव को विकासी है ।। आनसों अतीत सदा सासतो विराजतु है, देव चिदानंद जगि जोति प्रकासी है । ऐसो निज आप जाको अनुभौ अखंड करे, शिवतियानाथ होय रहे अविनासी है । । ७४ ।। शोभित है जीव सदा आन सों अतीत महा, आश्रव-बंध - पुण्य-पाप सो रहित है। सहज के संवर सों परको निवास्तु है, शुद्ध गुणधाम शिवभाव सों सहित है।। ऐसी अवलोकनि में लोकके शिखर परि सासतो विराजे होय जग में महतुर है। शिव के सधैया जाको सुखराशि जानि- जानि, अविनासी मानि मानि जय-जय कहतु है । ।७५ ।।
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१ मुद्रित पाठ है - सुउधार प्रतीति निश्चय २ अनन्त प्रकार ३ अन्य दूसरे से, ४ ऊपर, ५ महान्
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