Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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मेरो मेरो मार्न जाकी माननि' धरतु है। जग में अनेक भाव जिन को जनैया होत, परम अनूप आप जानिन करतु है।। मोह की अलट' ले अज्ञान भयो डोलन है, चेतना प्रकाश निज जान्यो न परतु है। अहंकार आन को किये ते कछु सिद्धि नाहिं, आप अहंकार किये कारिज सरतु है।।।। सहज संभारि कहा परि मांहि फंसि रह्यो, जे जे पर माने तेते सब दुखदाई हैं। विनासी जड़ महा मलिन अतीव बने, तिन ही की रीति तोको अति ही सुहाई हैं।। समझि के देखि सुखदाई भाव भूलतु हैं, दुखदाई माने कहु होत न बड़ाई हैं। अरु भयो अनादि को है अजहूं न आवे लाज, काज सुध* किये विनु कोई न सहाई हैं ।।६।। लौकिक के काजि महा लाखन खरच करे, उद्यम अनेक धरे अगनि१ लगाय के। महासुख दायक विधायक परमपद, ऐसो निजधरम न देखे दरसाय के। एक बार कह्यो तू हजार बार मेरी मानि, देह को सनेह किये रुले दुख पाय के।। आतमीक हित यात करणो तुरत तोको,५३ और परपंच झूठे करे क्यों उपाय के ।।१०।। तन-धन-मन-ज्ञान च्यार्यो क्यो छिनाय लेत, १ गर्व, अभिमान, २ विपरीतता. ३ पर में अपनापन, अहं बुद्धि. ४ जिन-जिन को, ५ पर पदार्थ, ६ माना है. ७ वे सब, ८ कहो, ६ आज मी, १० शुद्ध. ११ आग, १२ कर्ता , १३ तुझे, १४ छीनना, छुड़ाना
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