Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
मंत्र पद साधि करि महा मन थिर धरि, पदस्थ ध्यान साधते स्वरूप आप पाइये। आपना स्वरूप प्रभुपद सोही पिंड में विचारिके अनूप आप उर में अनाइये। समवसरण विभौ' सहित लखीजे आप, ध्यानमें प्रतीति धारि महा थिर थाइये। रूप सो अतीत सिद्धपद सों जहां ध्यान मांहि ध्यावे सोही रूपातीत गाइये ।।३५ ।। पवन सब साधिके अलख अराधियत', सो ही एक साधिनी स्वरूप काजि कही है। अविनासी आनंद में सुख कंद पावतेई, आगम विधान ते ज्या ध्यान रति लही है || ध्यान के धरैया भवसिंधु के तिरैया भये, जगत में तेऊ धन्य ध्यान विधि चही है। चेतना चिमतकार सार जो स्वरूप ही को, ध्यान ही तें पावे ढूंढि देखो सब मही है।।३६ ।।
दोहा
परम ध्यान को धारि के, पावे आप सरूप। ते नर धनि है जगत में, शिवपद लहें अनूप । ।३७ ।। करम सकल क्षय होत हैं. एक ध्यान परसाद। ध्यान धारि उघरे बहुत, लहि निजपद अहिलाद ।।३८।। अमल अखंडित ज्ञान में, अविनासी अविकार। सो लहिये निज ध्यान तैं जो त्रिभुवन में सार ||३६ ||
१ मव २ आराधना करने से. ३ प्रकट, ४ ज्ञानानन्द, आल्हाद
१२५