Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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आज्ञा भगवान की मैं उपादेय आप कहो. तामें थिर हजै यह आज्ञाविच ध्यान है। कान को नारा को हाही के प्रभाव सेती ताको ध्यान कह्यो सुखकारी भगवान है। करमविपाक में न खेदखिन होय कहूं ऐसे निज जाने तीजो ध्यान परवान है। संसथान लोक लखि लखे निज आतमा को, ध्यान के प्रसाद पद पावे सुखवान है । ।३२।। दरवि सों गुण ध्यावे गुणन ते परजाय. अरथांतर सदा यो भेद कह्यो ध्यान को। ज्ञान हो दरशन हो सबद सों शब्दान्तर अस्मि शब्द रहे भेद जोगांतर थान को।। प्रथक्त्ववितर्क के हैं भेद-ये विचार लिये, ज्ञानवान जाने भेद को भगवान को। अतुल अखंड ज्ञानधारी देव चिदानंद, ताको दरसावे पद पावे निरवाण को ।।३३।। एकत्वरूप मांहि थिर हदै स्वपद शुद्ध. कीजे आप ज्ञान भाव एक निजरूप में। घातिकर्म नाश करि केवल प्रकाश धरि, सूक्ष्म वै जाग' सुख पावे चिदभूप में।। मेटि विपरीत क्रिया करम सकल भानि. परम पद पाय नहीं परे भौ कूप में। यातें यह ध्यान निरवाण पहुंचावत है, अचल अखंड जोति भासत अनूप में ।।३४।। १ आत्मस्वभाव में, २ आज्ञाविचय धर्मध्यान. ३ विपाक विचय धर्मध्यान, ४ प्रमाण, ५ संस्थानविचय धर्मध्यान, ६ आत्मावलोकन कर, ७ उपयोग को सावधान पूर्वक सूक्ष्म कर, ८ संसार रूपी कुआ. ६ अनुपम (शुद्धात्म स्वरूप),
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