Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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सकल विभाव की न दीसत विकासना ।। आनंद अखंड रस परखे सदैव जहां, होत हैं अनंत सुखकद की विलासना । ज्ञान दिष्टि धारि देखि आप हिये राजतु है, अचल अनूप एक चिदानद मासना।।८।। देव नारक ये तिरजग' ठाठ सारे सो तो, एक तेरी भूलि ही का फल पावना। तू तो सत चिदानंद आपको पिछाने नाहिं, राग-दोष-मोह केरी करत उपावना ।। पर की कलोल में न सहज अडोल पावे, याही तें अनादि कीना भव भटकावना। आनंद के कंद अब आपको संभारि देखि, आतमीक आप निधि होय विलसावना ! १६ ।। तू ही ज्ञानधारी क्या भिखारी भयो डोलत है, सकति संभारि सिवराज क्यों न करे है। तू ही गुणधाम अभिराम अतिआनंद में, आप भूलि का हम ही सब दुख भरे है। तू ही चिदानन्द सुखकंद सदा सासतो है, दुखदाई देह सों सनेह कहा धरे है।। देवन के देव जो तो आप तू लखावे आप तो भव-बाधा एक छिन भांहि हरे है।।२०।। सहज आनंद सुखकंद महा सासतो है, तेरो पद तोही में विराजत अनूप है।
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१ तीन लोक. २ की (षष्ठी विभक्ति), ३ उपाय,
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